होली है…
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
होली के साथ लगा हुआ है कि बुरा न मानो, होली है। आज तक मुझे यह समझ में नहीं आया कि होली में बुरा मानने की आखिर बात क्या है? होली है, तो है, बल्कि होली तो खुशियों का त्योहार है। मेरे सामने वर्मा जी रहते हैं। जब भी आएंगे होली पर, तो यही कहते हुए आएंगे – शर्मा जी, बुरा मत मानिएगा होली है। यह रंग लाया हूं, एकदम विदेशी है, पंद्रह दिन तक तो छूटेगा नहीं। मैं कहता हूं ‘होली पर मैं बुरा क्यों मानूं। रंग तो आप शौक से लगाइए, परंतु यह विदेशी लेबल वाला नहीं, जो पंद्रह दिन तक मुझे बदरंग कर दे, हल्के टेसू वाले रंग ले आइए। वह पूछते हैं- यह टेसू क्या होता है ? मैं अकसर यही जवाब देता हूं‘अमां वर्मा जी टेसू-फागुन को ही नहीं जानते हो, तो होली खेलने आए क्यों हो’? वे कहते हैं- शर्मा जी, हम तो होली के बारे में इतना ही जानते हैं कि यह रंगों का त्योहार है। इस पर जितना गाढ़ा रंग लगा सको, लगाना चाहिए। इसलिए आप हमें मौका दीजिए। यह कहकर वह मेरा मुंह काला कर जाते हैं। मैं आमतौर पर उनसे इसी बात पर नाराजगी व्यक्त करता हूं, तो वह कहने लगते हैं मैंने पहले ही कहा था कि बुरा मत मानना। आप तो खुद कहते हैं कि होली पर बुरा मानने की बात क्या है? अब जब आपके रंग लगाया, तो आप देने लगे गालियां। उस दिन एक बात तो मेरी समझ में आ जाती है कि अब होली है इसलिए बुरा क्या मानना, लेकिन मैं अगली होली तक इस पहेली को फिर भूल जाता हूं और ‘होली है’ ही याद रख पाता हूं। इस तरह वर्मा जी करीब आठ-दस बार मुझसे ऐसी होली खेल चुके हैं, परंतु मैं शराफत में उन्हें बर्दाश्त किए जा रहा था। इस बार मैंने तय किया कि वर्मा जी आएं, उससे पहले ही मुझे विदेशी रंग ले जाकर वर्मा जी का मुंह काला कर देना चाहिए। ऊपर से मिठाई की मांग और धर देनी चाहिए। इसी इरादे से मैंने कीचड़ छाप रंग खरीदा और जा धमका उनके निवास पर। वह गरम-गरम पकोड़ों के साथ जलेबियां हलक से नीचे उतार रहे थे। मैंने कहा मैं आ गया हूं वर्मा जी। विदेशी रंग लाया हूं, बुरा मत मानना, यह रंग लगाकर मिठाई भी खाऊंगा और आपसे गालियां भी सुनूंगा।