नेम-फेम-शोहरत के बाद भी अकेली थीं ट्रेडजी क्वीन मीना
यह युवाओं के सपनों का शहर है। यहां रातें भी सितारों की झिलमिलाहट से रोशन रहती हैं। यहां गिरने वालों को कोई उठाने वाला नहीं होता, उसे खुद ही उठकर अपनी धूल झाड़ खड़ा होना पड़ता है। मीना कुमारी निजी जीवन के दर्द और पीड़ा के घूंट को पल-पल पीने वाली भावप्रवण एवं संवेदनशील अदाकारा थीं, जिन्हें 1954 में ‘बैजू बावरा’ के लिए पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला था। 38 साल की अल्पायु में ही दुनिया छोड़ देने वाली मीना कुमारी कभी सुख-संतुष्टि का जीवन नहीं जी पाईं। मीना कुमारी की पहचान भारतीय सिनेमा में एक सशक्त अभिनेत्री की रही है। पिता अली बख्श पारसी रंगमंच के एक समर्थ कलाकार थे। मीना कुमारी के बचपन का नाम महजबी था। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण महजबी को बहुत छोटी उम्र में ही फिल्मों में काम करने के लिए पिता द्वारा भेजा जाने लगा। महजबी ने पहली बार 1939 में एक बाल कलाकार के रूप में फिल्म ‘लेदरफेस’ में कैमरे का सामना किया और फिल्मी नाम मिला बेबी मीना। 1946 में ‘बच्चों का खेल’ से मीना कुमारी नाम से काम करना शुरू किया। 1952 में प्रदर्शित फिल्म ‘बैजू बावरा’ 100 हफ्ते तक पर्दे पर रही। मीना कुमारी के किरदार को खूब सराहा गया और वह स्टार बन गईं। इस फिल्म के लिए 1954 में पहले फिल्म फेयर अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। इसी दरम्यान फिल्म ‘तमाशा’ के सेट पर 1951 में कमाल अमरोही से मुलाकात हुई और दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठे। 14 फरवरी, 1952 को कमाल ने मीना से गुपचुप निकाह किया। पर मीना का दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रहा। दोनों ने 1964 में अलगाव हो गया। 1957 में आई फिल्म ‘शारदा’ ने मीना को ‘ट्रेजडी क्वीन’ बना दिया। कमाल से तलाक के बाद भी मीना उन्हें भुला न सकीं। गम हल्का करने के लिए शायरी का शौक पाला। नींद आंखों से दूर रहने लगी। चिकित्सकों की सलाह पर नींद हेतु लिया गया शराब का सहारा उन्हें अपने नशे में डुबाता चला गया और वह बीमार रहने लगीं। 31 मार्च, 1972 को हिंदी फिल्म जगत की ट्रेजडी क्वीन ने मुंबई के सेंट एलिजाबेथ अस्पताल में अपने लाखों प्रशंसकों को रोता हुआ छोड़ कर अंतिम सांस ले इस नश्वर दुनिया से विदा ली। —प्रमोद दीक्षित ‘मलय’