गरीबी क्यों मिली सुदामा को


प्रेम और दोस्ती की ऐसी मिसाल शायद ही कहीं और देखने और सुनने को मिले। जैसी दोस्ती श्रीकृष्ण और सुदामा की थी। धन और दोलत को छोड़ कर कोई ऐसा त्याग कर सकता है, तो वह है सुदामा। आप किसी को बड़ा आदमी क्यों कहते हैं?


जाहिर सी बात है लोगों ने बड़े होने की परिभाषा को दौलत और समृद्धि से जोड़ लिया है। जिसके पास जितनी दौलत वो उतना बड़ा आदमी। भौतिक दुनिया का यही सत्य है, लेकिन आध्यात्मिक दुनिया की बात करें तो प्रेम, करुणा, दया कमाने वाला व्यक्ति संसार का सबसे अधिक धनी मनुष्य है। पौराणिक कथाओं में ऐसा ही एक प्रसंग है श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता थी। जिनकी घनिष्ठ मित्रता ने संसार को एक नई परिभाषा दी। मित्रता में कोई अमीर-गरीब, जाति या वर्ग मायने नहीं रखता, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि श्रीकृष्ण के मित्र होने के बाद भी सुदामा इतने गरीब क्यों थे। पौराणिक कथा के अनुसार सुदामा ने स्वयं एक श्राप ग्रहण किया था। कथा के अनुसार एक ब्राह्मणी थी, जो बहुत गरीब और निर्धन थी। भिक्षा मांग कर जीवन व्यतीत करती थी। एक समय ऐसा आया कि पांच दिन तक उसे भिक्षा नहीं मिली। वह प्रतिदिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी। छठवें दिन उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चने मिले। कुटिया में पहुंचते-पहुंचते रात हो गई।


ब्राह्मणी ने सोचा अब ये चने रात में नहीं खाऊंगी सुबह भगवान को भोग लगाकर फिर खाऊंगी। यह सोचकर ब्राह्मणी ने चनों को कपड़े में बांधकर रख दिया और वासुदेव का नाम जपते-जपते सो गई, लेकिन कुछ समय बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गए। इधर-उधर बहुत ढूंढा चोरों को कुछ नहीं मिला, लेकिन वे चनों की बंधी पोटली चुराकर ले गए। क्योंकि उनको उस पोटली में सोने के सिक्के लगे। इतने में ब्राह्मणी जाग गई और शोर मचाने लगी। गांव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौड़े। चोर वे पोटली लेकर भागे। पकड़े जाने के डर से सारे चोर संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गए, जहां भगवान श्री कुष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। कुछ समय बाद चोर उस आश्रम से भी भाग गए, लेकिन वे चनों की पाटली वहीं पर भूल गए। इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया कि मुझ दीनहीन असहारा के जो भी चने खाएगा वह दरिद्र हो जाएगा। प्रातःकाल गुरु माता आश्रम में झाड़ू लगाने लगी और उसे वही चने की पोटली मिली। गुरु माता ने पोटली खोल के देखी, तो उसमें चने थे। सुदामा और कृष्ण भगवान जंगल से लकड़ी लाने जा रहे थे। तो गुरु माता ने वह चने की पोटली सुदामा को दी और कहा बेटा कि भूख लगे तो खा लेना। सुदामा तो जन्मजात से ही ब्रह्मज्ञानी थे।


ज्यों ही चने की पोटली सुदामा ने अपने हाथ में ली, त्यों ही उन्हें सारा रहस्य मालुम हो गया। सुदामा जी ने सोचा गुरु माता ने कहा है यह चने दोनों लोग बराबर बांट के खाना, लेकिन ये चने अगर मैंने श्री कृष्ण को खिला दिए, तो सारी सृष्टि दरिद्र हो जाएगी। मैं ऐसा नहीं करुंगा, मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जाएं ऐसा कदापि नहीं होगा। सुदामा ने अपनी मित्रता को एक नई पहचान दी, जिसके किस्से कथा और कहानियों में आज तक दोहराए जाते हैं। श्रीकृष्ण एवं सुदामा की मित्रता सर्वोत्कृष्ट है। जो परमात्मा का स्मरण हर समय करता है, उसे भगवान हर सुख प्रदान करते हैं। जो परमात्मा की शरण में रहता है, उसका जीवन धन्य है।


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