किताब पढ़ने के बजाय भीतर खोजना जरूरी



 


गुरुओं, अवतारों, पैगंबरों, ऐतिहासिक पात्रों तथा कांगड़ा ब्राइड जैसे कलात्मक चित्रों के रचयिता सोभा सिंह पर लेखक डा. कुलवंत सिंह खोखर द्वारा लिखी किताब ‘सोल एंड प्रिंसिपल्स’ कई सामाजिक पहलुओं को उद्घाटित करती है। अंग्रेजी में लिखी इस किताब के अनुवाद क्रम में आज पेश हैं ‘किताबों’ पर उनके विचार…




विश्वास


बहुत कुछ लिखा जा चुका है तथा बहुत कुछ कहा जा चुका है, किंतु हमारे दिमाग में कोई बात नहीं आती है। हम अप्रभावित हैं। हमने ग्रहणशीलता की योग्यता खो दी है। कारण यह है कि हम किसी पर विश्वास नहीं करते तथा किसी पर विश्वास नहीं है। दूसरों में विश्वास जरूरी होता है। हमारी ग्रहणशीलता की योग्यता एक बड़ी चीज है तथा यह हमें अपने चारों ओर मौजूद लोगों में विश्वास करने को प्रेरित करती है।


किताबें


हमें उन किताबों की जरूरत है जिन्हें हमारे प्रतिकारों को बंद करना चाहिए। किताबें विश्लेषणात्मक होती हैं, किंतु ये समाधान उपलब्ध नहीं करवाती हैं। ये समस्या के उपचार में मदद करती हैं। इलाज तब होता है जब कोई किताबों को पढ़ना बंद करता है तथा भीतर खोज करता है। बहुत ज्यादा शाब्दिक अभिव्यक्ति भी एक प्रतिकार है। शब्दकोष बहुत ज्यादा बढ़ चुका है। बच्चे हंस करके, आनंद लेकर तथा कुछ शब्द जोड़कर अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हैं। यह कहना, ‘मैं इतने अधिक शब्द जानता हूं कि मेरा शब्दकोष बहुत विस्तृत है’, विवशता से ज्यादा और कुछ नहीं है। सही कदम को किसी की भी जरूरत नहीं है। जानवर चिंतामुक्त रहते हैं, जीते रहते हैं तथा वे रिएक्ट नहीं करते हैं। पक्षी जब किसी नेवले को देखते हैं तो वे चीत्कार करना शुरू कर देते हैं तथा जब नेवला अपने बिल में अदृश्य हो जाता है तो वे तुरंत शांत हो जाते हैं। ंवे पहले की तरह अनाज के दाने चुगना शुरू कर देते हैं। यह आदमी है जो अपने बेटे को अपनी मौत के बाद भी बदला लेने के लिए कहता है। एक कुत्ता दूसरे पर गुर्राता है, किंतु जब उसे यह एहसास होता है कि दूसरा ज्यादा शक्तिशाली है तो वह भाग खड़ा होता है। कुत्ता स्थिति के अनुसार चलता है। आदमी प्रतिकार करता है और जोर देता है कि वह अपनी पीठ (बदला लेने के लिए) नहीं बदलेगा। बहुत कुछ लिखा जा चुका है, किंतु मानव का दिमाग किसी एक चीज पर व्यवस्थित नहीं हो पाया है। हमें ऐसी किताबों की जरूरत है जो हमें क्रिया करना सिखा दें तथा प्रतिकार को दूर ले जाएं।


मनोग्रंथियां


एक बच्चे में हीनता की भावनाएं हो सकती हैं, किंतु उसमें हीनता की मनोग्रंथि जन्मजात नहीं होती है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे पेचीदगियां विकसित होती हैं। एक अच्छे आदमी में श्रेष्ठता की भावना भी हो सकती है, किंतु यह श्रेष्ठता की मनोग्रंथि नहीं है। यह ग्रंथि भीतरी हीनता को अदृश्य करते हुए बाहरी श्रेष्ठता में खुद को परिवर्तित करती है। ऐसे भी लोग हैं जो हीन भावना से ग्रस्त हैं तथा अपने आपको छोटा महसूस करते हैं। वे अपने आपको श्रेष्ठ जताने का दिखावा करके असामान्य रूप से व्यवहार करते हैं।



 

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