रामायण : अगर आज लिखी जाती

 



राामचरितमानस अगर आज लिखा जाता तो किसी लोकप्रिय सचित्र साप्ताहिक में धारावाहिक रूप में छपता, या फिर किसी व्यावसायिक मासिक में स्थान पाता। छोटी पत्रिका वाला हिम्मत न करता। बड़ी पत्रिका में धारावाहिक छपने के बाद, यह कृति दिल्ली या इलाहाबाद के किसी प्रकाशनगृह से पुस्तकाकार निकलती। पहली बार में संभवत: ग्यारह सौ प्रतियां छपतीं। दूसरा संस्करण होता या नहीं, कहा नहीं जा सकता। रॉयल्टी (क्योंकि यह तुलसीदासजी को 'कैश' या 'काइंड' में उनके मरने के पहले या बाद में हो जाता। वैसे छापने के पहले प्रकाशक उनसे दस-बारह चक्कर जरूर लगवाता क्योंकि आजकल, कागज, स्याही, गत्ता, गोंद, डोरा, सूजा-सुतली सभी के दाम बढ़े हुए हैं। कुछ प्रकाशक यह भी कह कर पांडुलिपि लौटा देते कि पूर्व स्वीकृत पांडुलिपियों के अधिक मात्रा में इकट्ठा हो जाने के कारण वे अभी कोई नयी किताब हाथ में लेने की स्थिति में नहीं हैं। कुछ प्रकाशक इतनी मोटी किताब देखकर ही उसमें पैसा फंसाने से इंकार कर देते। कुछ पुस्तक की सेलेबिलिटी पर प्रश्नचिह्न लगाते और महात्माजी को कोई बढ़िया सनसनाती हुई चीज लिखकर लाने को कहते।


मगर यह सब नहीं हुआ। रामायण तभी लिखी गई जबकि उसे लिखा जाना था। मगर एक बात है सोचने की, अगर आज लिखी जाती तो क्या होता? हालांकि यह सोचना उतना ही बेमानी है जितना कि यह कल्पना करना कि तैमूर-लंग अगर आज दिल्ली में होता तो क्या वह प्रजातंत्र के नाम पर साढ़े पांच सौ सफेद हाथियों का लंगरखाना चलने देता या कि औरंगजेब जिंदा होता तो वह साहित्यिक आयोजनों पर जजिया लगाता या नहीं? मगर फिर भी, क्योंकि सोचने बैठे हैं, थोड़ा-बहुत तुलसीदासजी पर भी सोच लें तो क्या हर्ज है?


तो जनाब, पहले तो तुलसीदासजी इसे लिखते। फिर पांडुलिपि की डुप्लीकेट कापी बनवाते- क्योंकि पांडुलिपि डाक में खो जाने का डर रहता है- और हर पत्रिका हालांकि पांडुलिपि की पूरी सुरक्षा करती है, मगर फिर भी रचना के कार्यालय में गुम हो जाने, चोरी चले जाने अथवा पत्रिका के किसी उप-संपादक द्वारा अपने नाम से छपवा लेने की जिम्मेदारी नहीं लेती- अत: एक प्रति अपने पास रखना जरूरी होता। तो तुलसीदाजी मूल पांडुलिपि की दो प्रतियां टाइप करवाते- या फिर कागज के एक ओर हाशिया छोड़कर, पढ़े जा सकने योग्य हैंडराइटिंग में साफ-साफ लिखवाते। फिर किसी पत्रिका को भेजते जो दो महीने तक विचार करती। इस दो महीने की अवधि के दौरान तुलसीदासजी पत्रिका से रचना के प्रकाशन, अप्रकाशन संबंधी पत्र-व्यवहार नहीं कर सकते थे। अगर वापसी के लिए डाक टिकट न लगाए होते तो पांडुलिपि दो महीने विचार करने के बाद नष्ट कर दी जाती और पत्रिका की कोई जिम्मेदारी न तो तुलसीदासी के प्रति होती और न ही पांडुलिपि के प्रति।


अगर स्वीकृत हो जाती तो संपादक छापता। बराबर छापता। कुछ चौपाइयां काट कर छापता, कुछ अपनी तरफ से जोड़ कर छापता। कुछ परिच्छेद इधर से उधर करके छापता। इन संशोधनों के लिए वह तुलसीदासजी से पूछता या नहीं, मैं नहीं कर सकता। कुछ संपादक पूछ लेते हैं, कुछ नहीं भी पूछते। अब मैं यह भी नहीं कह सकता कि अपनी कृति में संशोधन- संपादक-इच्छित संशोधन, जो कि वस्तुत: पाठकों की मांग के अनुसार तय होते हैं, या पत्रिकाओं के आकाओं की रुचियों, निर्णयों द्वारा लिखित होते हैं- के लिए पंडित तुलसीदासजी तैयार होते या न होते। मेरा अनुमान है कि हो जाते। क्योंकि किसी पत्रिका से स्वीकृत रचना वापस बुलवाना, विवाहित बिटिया को घर में बैठाए रखने से ज्यादा दुखदायी होता है। आप लाख चेहरे पर कर्रापन रखें कि आप स्वाभिमान के धनी हैं, अब बिटिया को उस बूचड़खाने में नहीं भेजेंगे, मगर उस कर्रेपन के पीछे से आपके चेहरे पर पड़ी विवशता की परतें फिर भी झांक जाती हैं। जैसे बेटी के बाप को समधी के सामने झुकना पड़ता है,


रचनाकार को रचना छपानी है तो संपादक, प्रकाशक के सामने झुकना ही पड़ेगा। जैसे बिटिया की सही जगह ससुराल होती है, वैसे ही रचना की सही जगह पत्रिका या पुस्तक ही है। वैसे तुलसीदास संसार के मायामोह से परे थे। इसलिए हो सकता है अकड़ जाते। मगर अकड़ जाते तो अप्रकाशित रहने की यातना भोगते-और एक लेखक के लिए यह शायद रौरव नरक की यातना से ज्यादा बदतर है। इसके अलावा यदि खुद छापने की सोचते तो उसमें महात्माजी के कौपीन, कमंडल और वल्कल वगैरह बिक जाते। फिर भी शायद केवल एक-आध कांड भर छप पाता।


अब जैसा कि आम तौर पर लेखक लोग अपने आपको जमाने के लिए चर्चित होने के लिए करते हैं, जब वह ग्रंथ पत्रिका में धारावाहिक छप रहा होता, तुलसीदासजी दस-पंद्रह मुख्तलिफ जगहों से हर महीने चिट्ठी डलवाते जिनमें यह लिखा रहता कि वाकई चीज छप रही है। भाषा पर लेखक का असाधारण अधिकार है। संपादक को बधाई। लेखक को बधाई। कंपोजीटरों को बधाई वगैरह-वगैरह।


फिर किताब छपती। फिर समीक्षा आती। समीक्षाएं तीन प्रकार की होतीं। एक वे जिन्हें तुलसीदासजी जो समीक्षा लिखवाते वह कैसी होती, यह बतलाना जरूरी नहीं। प्रकाशक पुस्तक के फ्लैप पर समकालीनों के कुछ ओपीनियन देता जिनमें ग्रंथ व ग्रंथकार की भूरि-भूरि प्रशंसा होती। मगर पेशेवर समीक्षक जो समीक्षा लिखता उसकी बानगी यहां प्रस्तुत है-


एक लिखता- पूरी थीम चोरी की है। वाल्मीकि नामक सज्जन इसे पहले ही लिख गए हैं। इधर हिंदीतर भाषाओं खास कर अंग्रेजी, फ्रेंच व स्पैनिश वगैरह से माल धड़ाधड़ चुराकर छपाया जा रहा है, यह उसी का एक नमूना है।


दूसरा ऑक्सर-वाइल्ड या पर्ल-बक से तुलना करता। टी.एस. ईलियट का तुलसी पर प्रभाव ढूंढता। या फिर गोगिया-पाशा से तुलसी ने कितना क्या लिया है, इसका विवेचन करता।


तीसरा लिखता- नाम क्या है। यह इसकी पहली किताब है। और चूंकि पहली किताब है, इसमें संभावना है। आगे चलकर हो सकता है सुखसागर, प्रेमसागर, किस्सा तोता-मैना या गुले-बकावली अथवा सिंहासन बत्तीसी जैसी कोई ऊंची चीज दे जाए।


चौथा लिखता- किताब का गेट-अप सुंदर है। अंदर छापे की बहुत गलतियां हैं। मुद्रक व प्रकाशक का नाम दूसरे पेज पर दिया गया है, यह ठीक नहीं है। लेखक का नाम चौदह पॉइंट में दिया गया है, यह सोलह पॉइंट में होना चाहिए था। कागज चौबीस पौंड इस्तेमाल किया गया है, यह अठारह पौंड होना था।


पांचवा लिखता- कथावस्तु में कुछ भी नवीनता नहीं है। वही औरत को ले कर झगड़ा है। जिस औरत पर जनक के यहां रावण कब्जा करना चाहता था, उस पर राम कब्जा कर लेता है। रावण स्वयंवर में अकेला गया था जबकि राम के साथ उसका भाई भी था। यह भाई तीर-कमान लिए हुए राम के साथ बराबर बना रहता। लिहाजा रावण उस समय तो चुपचाप लौट आता मगर बाद को मौका पाकर उसी औरत पर जंगल में कब्जा कर लेता है। इसके बाद राम रावण पर हमला बोल देता है और उसकी सारी लंका पर कब्जा कर लेता है। बाद को राम लंका का कब्जा छोड़ देता है और सिर्फ सीता पर कब्जा बरकरार रखता है। राम व सीता का चरित्र-चित्रण बढ़िया है। मगर शबरी, उर्मिला और सुग्रीव के साथ न्याय नहीं किया गया। रचना में अनेक अनावश्यक पात्रों की भी भरमार है जिससे मूल कथावस्तु भटकती है। अगर केवल तीन पात्र रखे जाते-राम, रावण व सीता, तो भी बात को संप्रेषित किया जा सकता था और पुस्तक को इतने कांडों की जरूरत न पड़ती।


तो जनाब, यह सब कुछ होता तुलसीदासजी के रामचरितमानस के साथ, जो नहीं हुआ। चार सौ साल पहले इसे लिखकर तुलसीदास जी इतने आनंद से वंचित रह गए।


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