रामायण के पात्र किसी अजूबे से कम नहीं हैं 

महादेव जो शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं अपने भक्तों पर, और मैं ही उनको प्रसन्न न कर सका, ये सोच कर आत्मग्लानि से भर गया। एक दिन वह पूजा में जब पुष्प चढ़ाने लगा तो पुष्प कम पड़ गए। तब उसने पूजा को पूर्ण करने के लिए एक-एक कर अपना मस्तक काट कर पुष्प की जगह चढ़ाना शुरू कर दिया, ये सोच के कि जो अपने जीवन में महादेव को प्रसन्न नहीं कर सका तो उस जीने वाले को धिक्कार है। आज पुष्प की जगह महादेव को मेरे शीश अर्पण हैं। दर्द से रावण बेसुध सा हो गया, लेकिन मुंह से हर-हर महादेव कहना नहीं छोड़ा। अंतिम सिर से झुक कर महादेव को अंतिम प्रणाम कर जैसे ही खड़ग प्रहार किया अपनी गर्दन पर, महादेव ने प्रकट हो उसका हाथ पकड़ लिया, बोले रावण मुझे बहुत प्रसन्नता हुई, तुमने मेरे लिए अपने प्राण संकट में डाल दिए, मांगो क्या चाहिए। रावण दर्द को सहता हुआ महादेव के चरणों में प्रणाम करता हुआ, अति विनम्र होकर बोला, ‘हे देवाधिदेव महादेव, मुझे आपके दर्शन हो गए, आप मुझ से प्रसन्न हैं, मुझे अब और कुछ नहीं चाहिए, मैं मांगने की इच्छा से ही तप कर रहा था, लेकिन आप के इस सुंदर स्वरूप को देखकर ही मैं धन्य हो गया, आप प्रसन्न हो गए, मुझे इस बात से पूर्ण संतोष है प्रभु, और मुझे कुछ नहीं चाहिए, आपने मुझे दर्शन दे दिए, मेरे लिए इससे बड़ा वरदान कुछ नहीं, अतः मुझे कुछ नहीं चाहिए। महादेव ने कहा कि रावण मैं तो तुम्हारे संकल्प से ही वरदान देने के लिए आया हूं, अतः ऐसे तो जा ही नहीं सकता हूं, इसलिए तुम निःसंकोच होकर मांगो, तुम्हें जो चाहिए तुम मांग लो। रावण ने कहा, ‘हे महादेव, हे देवाधिदेव, हे भक्तवत्सल यदि आप देना ही चाहते हैं, तो मुझे आपकी अटूट भक्ति दे दीजिए और मैं हमेशा आपके नमः शिवाय रूपी मंत्र का जप करता रहूं, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। महादेव उसकी बात सुन अत्यंत प्रसन्न हुए। जिसका लक्ष्य था अमरता प्राप्त करना और वह प्रभु भक्ति मांग रहा है, इससे बड़ा ज्ञानी और कौन हो सकता है? तब महादेव ने उसे अपनी भक्ति प्रदान की और वरदान दिया कि तुम्हारे शीश पुनः आ जाएंगे, इसके अलावा जब भी कोई अंग कट जाएगा उसके स्थान पर पुनः नया अंग स्वतः ही उग आएगा। महादेव जानते थे कि रावण को बालि और अन्य लोगों से युद्ध में हार जाने की ग्लानि मन में है कि वह उतना शक्तिशाली नहीं है, इसलिए महादेव ने भक्ति के अतिरिक्त उसे बहुत अपार बल दे दिया और साथ में पाशुपत नामक अस्त्र दिया। महादेव से बल पाकर जब वह अपने स्थान से उठा और वापस चलने के लिए कदम आगे रखा तो पृथ्वी डगमगा गई। इससे रावण बहुत आनंदित हो गया और पुनः महादेव को मन में प्रणाम कर वह लौट के लंका में आ गया। महादेव का रावण प्रिय भक्त बन गया, लंका से प्रतिदिन पुष्पक विमान से कैलाश जाता था और वहां भगवान महादेव की पूजा और आराधना करता था। रावण ने तीनों लोकों को अपनी गति से चलाने वाले नौ ग्रहों को जब अपने अधीन कर लिया और दिगपालों को उसने अपने लंका के मार्गों में जल छिड़काव के काम में लगा दिया, तब उसे एक तरह से त्रिलोक विजेता माना गया, क्योंकि त्रिलोक का संचालन करने वाले सभी देवता, नौ ग्रह उसके अधीन थे और अब उसे भी पराजित करने वाला त्रिलोक में कोई नहीं था। उसने तीनों लोकों में रहने वाले अधिकांश भागों को अपने अधीन कर लिया था। एक बार नारद जी फिर से लंका आए, रावण ने उनकी बहुत अच्छी सेवा की, नारद जी ने रावण को कहा, ‘सुना है महादेव से बल पाए हो।’ रावण ने कहा, हां, आपकी बात सही है। नारद ने कहा कि कितना बल पाए हो? रावण ने कहा कि यह तो नहीं पता, परंतु अगर मैं चाहूं तो पृथ्वी को हिला-डुला सकता हूं। नारद ने कहा कि तब तो आपको उस बल की परीक्षा भी लेनी चाहिए क्योंकि व्यक्ति को अपने बल का पता तो होना ही चाहिए। रावण को नारद की बात ठीक लगी और सोच के बोला कि महर्षि अगर मैं महादेव को कैलाश पर्वत सहित उठा कर लंका में ही ले आता हूं, ये कैसा रहेगा? इससे ही मुझे पता चला जाएगा कि मेरे अंदर कितना बल है? नारद जी ने कहा कि विचार बुरा तो नहीं है और उसके बाद चले गए।


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