अध्यात्म की दृष्टि



बाबा हरदेव





जागरण से क्रांति पैदा होती है। जैसा कि बताया गया है, जब हम पूर्ण सद्गुरु की कृपा से जाग जाते हैं, तो हम अपने जीवन के लक्ष्य तथा संसार के सत्य-असत्य के प्रति चेतन अथवा जागरूक हो जाते हैं। सारे जगत में अधिकतर दो प्रकार के लोग हैं, दो तरह की चित्त अवस्थाएं हैं या तो भोगवादी और या फिर त्यागवादी। अब अध्यात्म की दृष्टि में दोनों ही रोगग्रस्त हैं,दोनों ही बीमार हैं, क्योंकि मनुष्य का मन एक अति से दूसरी अति में बहुत जल्दी चला जाता है। भोगी बहुत जल्दी त्यागी हो जाता है, हिंसक बहुत जल्दी अहिंसक हो जाता है, अधार्मिक बहुत जल्दी तथाकथित धार्मिक हो जाता है। इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। जैसे एक बड़ी घड़ी का पैंडूलम एक कोने से ठीक दूसरे कोने तक चला जाता है, कहीं बीच में नहीं रुकता, दूसरे कोने से फिर ठीक पहले कोने में चला जाता है, इसी प्रकार पैंडूलम की भांति मनुष्य का मन भी दो अतियों में डोलता रहता है। अतः जो आदमी अति भोजन प्रिय है, वो किसी दिन अति उपवास प्रिय हो सकता है। ये एक ही चीज की दो अतियां हैं। मानो एक ही तृष्णा और वासना के दो हिस्से हैं। भोग की छाया त्याग है। उदाहरण के तौर पर अगर हम धन या यश इकट्ठा करते-करते अनुभव करने लग जाते हैं कि धन और यश से हमें कुछ भी नहीं मिल पाया और जब हम धन आदि छोड़ने लगते हैं, तो जाहिर तौर पर हमें ऐसा लगता है कि त्याग हो रहा है, पुण्य हो रहा है। हम परमात्मा को प्रसन्न कर रहे हैं। मगर वास्तविकता में ऐसा करने से अहंकार की बहुत सूक्ष्म और संतृप्ति और तृप्ति होनी शुरू हो जाती है। अहंकार का पोषण शुरू हो जाता है। मैंने छोड़ा, मैंने त्याग किया और फिर इस सूक्ष्म अहंकार से छुटकारा पाना कठिन हो जाता है। त्याग करने का भाव पूरी तरह से पकड़ने लगता है। अब थोड़ा विचार करें कि अगर धन और यश आदि को पाने से कुछ नहीं मिल पाता, तो धन और यश आदि को छोड़ने से कुछ कैसे मिल सकता है? मानो अगर तृष्णा का, वासना का कोई मूल्य नहीं तो तृष्णा और वासना के त्याग का तो और भी कोई मूल्य नहीं हो सकता। अब अकसर लोगों को ये वर्णन की गई वास्तवकिता दिखाई नहीं पड़ती और जिन थोड़े से लोगों को इस बात की थोड़ी सी अनुभूति शुरू होती है, वो भी कुएं से बचते हैं और खाई में गिरते हैं। मानो वो इच्छा के विरोध में चलना शुरू कर देते हैं। तृष्णा के विरोध में चल पड़ते हैं। मानो एक तो वे लोग हैं, जो कुछ पाने के लिए दौड़े चल जा रहे हैं, फिर दूसरे वो लोग पैदा हो जाते हैं, जो कुछ छोड़ने के लिए, त्यागने के लिए दौड़ने लगते हैं। महात्मा फरमाते हैं कि दोनों ही तृष्णा के दो आयाम है यानी भोग और त्याग तृष्णा के ही दो अंग हैं और ऐसा जीवन जीने वाले मनुष्य का जीवन छाया का जीवन होता है, क्योंकि इस सूरत में दोनों तरफ से वासना मन को पकड़े रहती है, जो आदमी धन छोड़ने के लिए पागल हुआ फिरता है, केवल वासना विपरीत और विकृत रूप ले लेती है। मानो पहले वासना को हमने जबरदस्ती पीछे हटा दिया था और फिर वासना ने हमें पीछे से पकड़ लिया है। अतः अब छाया का जीवन सही मायनों में व्यर्थ दिखाई पड़ने लगे, जब ये दौड़ वास्तविकता में व्यर्थ दिखाई देने लगे और जब भोग और त्याग से रोगी का मन स्वस्थ होता नजर आने लगे, तब एक बहुत बड़ी क्रांति घटित होती है।



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