संसार महत्वपूर्ण है, आनंद क्षेत्र है संसार

हृदयनारायण दीक्षित 
संसार महत्वपूर्ण है। यह असार नहीं है, यह शाश्वत और परिवर्तनशील का योग है। यहां शाश्वत का बोध प्राप्त करने के अवसर हैं और परिवर्तनशीलता के प्रवाह का अंग होने के भी। कुछेक के लिए यह मोक्ष या मुक्ति की भूमि भी हो सकता है लेकिन सामान्य रूप में यह कर्म और आनंद का क्षेत्र है। कर्म और आनंद का सम्बंध 'मन' से है। मन संकल्प का केन्द्र है और सुख स्वस्ति का भी। ऋग्वेद में मन चंचलता के बहाने संसार की महत्ता बताते हैं, “मन बहुत दूर आकाश, अंतरिक्ष, वन, पर्वत की ओर चला गया है, उसे हम वापस बुलाते हैं।” ऋषि अनेक क्षेत्रों का उल्लेख करते हें और बार-बार कहते हैं, “हे मन यहीं आओ, इसी संसार में आपका जीवन है।” योग, ध्यान, उपासना, ईश्वर प्राप्ति या मुक्ति का क्षेत्र संसार है। ऋग्वेद की इसी परंपरा में यजुर्वेद (34.1-6) के 6 मंत्र हैं।
संसार आनंद क्षेत्र है। इसे और गहन आनंद से परिपूर्ण करना हम सबका कर्त्तव्य है। आनंद से परिपूर्ण संसार हम सबको और भी ज्यादा आनंदित करता है। आनंद सृजन के लिए शिव संकल्प चाहिए। वैदिक ऋषि अपने चित्त को शिवत्व से आपूरित करने की स्तुति करते हैं। शिवसंकल्प स्तोत्र के नाम से प्रतिष्ठित यजुर्वेद के इन मंत्रों में 'मन' को लोक कल्याण आपूरित करने की प्रार्थना है, “जागृत दशा में मन दूर-दूर भागता है, तो सुप्तावस्था में भी उसी तरह दूर-दूर भ्रमण करता है। वह इन्द्रियां का ज्योतिरूप है। जीवन का यही एक दिव्य माध्यम है - ज्योतिर् एकं। स्तुति है कि ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों वाला बने - तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु। यजुर्वेद का यह सूक्त बड़ा प्यारा है। यहां मन की महिमा है, सूक्ष्म विवेचन है। यहां आधुनिक मनोविज्ञान जैसे गहन विश्लेषण हैं। कहते हैं “श्रेष्ठकर्म करने वाले विद्वान मनीषी इसी मन से सत्कर्म करते हैं। यह सम्पूर्ण प्राणियों में विद्यमान है। ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों वाला हो - तन्मे मनः शिसंकल्पमस्तु। 
मन अच्छा हो तो जीवन में सौन्दर्य खिलता है, मन बुरा हो तो पतन और अधोगमन। कहते हैं, “ज्ञान सम्पन्न चेतनशील मन सभी प्राणियों के भीतर 'अमर ज्योति' है। इसके अभाव में कोई भी कार्य संभव नहीं होते। ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों वाला हो। आगे कहते हैं, “इसी मन की क्षमता से हम प्राचीन व भूतकाल का ज्ञान पाते हैं, वर्तमान को जानते हैं और भविष्यकाल को भी प्रत्यक्ष जान लेते हैं। ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों वाला हो।” (वही 4) यहां मन भूत, भविष्य और वर्तमान के ज्ञान का बल है। यहां मन की क्षमता भविष्य को भी प्रत्यक्ष देखने की है। आगे कहते हैं “इसी मन में ऋचाएं स्थित हैं, इसी में साम और यजुष् के मंत्र हैं। रथ के पहिए के आरों की तरह इसी मन में लोकमंगल का ज्ञान प्रतिष्ठित है। ऐसा हमारा मन शिव संकल्पों वाला हो।” मन को लगातार प्रशिक्षित करने, मन की क्षमता दोहराने और लोककल्याण की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना है। अंतिम मंत्र में कहते हैं “कुशल सारथी गतिशील अश्वों को इच्छित लक्ष्य की ओर अपने नियंत्रण से ले जाते हैं। इसी प्रकार जो मन हम सबको आदर्श लक्ष्य तक ले जाता है, जो मन कभी बूढ़ा नहीं होता, अन्तर्तम में स्थित है, ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों वाला बने।” शिवत्व से संकल्पबद्ध मन कर्म क्षेत्र में ठीक से सक्रिय होता है। 
ऋग्वेद के समाज की अभिलाषाएं संसारी हैं। बेशक अधिकांश मंत्र देवों को प्रसन्न करने वाली स्तुतियां हैं लेकिन देवों की प्रसन्नता पाने का लक्ष्य सांसारिक सुख प्राप्ति से जुड़ा हुआ है। वैदिक पूर्वजों के लिए यह संसार भरापूरा यथार्थ है। वे परलोक को लेकर परेशान नहीं हैं। उनके लिए यह संसार मिथ्या नहीं है। डॉ0 राधाकृष्णन् ने 'भारतीय दर्शन (खण्ड 2 पृष्ठ 83) में ठीक लिखा है “ऋग्वेद के सूक्तों में जगत् के मिथ्या होने के विचार का कोई आधार नहीं हैं संसार प्रयोजन शून्य मृग मरीचिका नहीं है।” बेशक बाद के भक्त कवियों ने संसार को माया कहा है। ऋग्वेद में भी 'माया' शब्द आया है। डॉ0 राधाकृष्णन् ने स्पष्ट किया है कि 'जहां कहीं माया शब्द आया है वह केवल उसके सामर्थ्य और शक्ति का द्योतक है।” (वही) 
ऋग्वेद में माया का अर्थ कौशल है। इन्द्र के लिए कहते हैं कि वह अपनी माया से शीघ्र-शीघ्र तमाम रूप धारण करता है। (6.47.18) यहां माया आभास या झूठ नहीं है। झूठ का अस्तितव नहीं होता। माया विशेष प्रकार का कर्म कौशल है। सापेक्ष रूप में उसे अनित्य कह सकते हैं, निरपेक्ष रूप में नित्य केवल अस्तित्व है। मनुष्य भी नित्य नहीं है। लेकिन मनुष्य भी कम से कम एक पूरे जीवन भर नित्य है। जीवन एक यथार्थ है। संसार यथार्थ है। प्रत्यक्ष है। परिवर्तनशीलता के कारण उसे अनित्य कहते हैं। ऋग्वेद में नित्य अनित्य की बहस नहीं है। डॉ0 राधाकृष्णन् ने ठीक कहा है कि ऋग्वेद की मुख्य प्रवृत्ति एक सीधा साधा सरल यथार्थवाद है। (वही)
देवता और प्रकृति के उपकरण आनंददाता हैं लेकिन सोम का आनंद अन्य देवानंदों से बड़ा है। ईरानी जेन्द अवेस्ता में ऐसा ही देवता हाओमा या होम है। सोम की तुलना यूनानी देव डायोनिसस से होती है लेकिन सोम की व्याप्ति हाओम या डायोनिसस से बड़ी है। सोम वनस्पति रूप प्रत्यक्ष हैं, वनस्पतियों के राजा भी हैं। सोमपान से आनंद मिलता है। सोम आनंद का आलम्बन भी है। यह वैदिक आर्यो की सृजनशीलता का प्रेरक हैं। आर्य सुख और आनंद के केन्द्र खोजते थे। ऐसे केन्द्र प्रकृति में हैं और इसी संसार में है। संसार विमुख संन्यास ऋग्वेद में नहीं है। गीता में श्रीकृष्ण ने भी कर्म त्याग को संन्यास नहीं कहा है। 
ऋग्वेद में सुव्यवस्थित नीतिशास्त्र है। यह नीतिशास्त्र कहीं भी आदेशात्मक नहीं है। इसे उपदेशात्मक भी नहीं कह सकते। समूचे ऋग्वेद में सु-ऊक्त या सुंदर कथन है। ये सूक्त हैं। सूक्तों में प्रसंगवश व्यक्ति और ब्रह्माण्ड, व्यक्ति और संसार, व्यक्ति और समाज तथा व्यक्ति और सभी प्राणियों के सम्बंधों का वर्णन है। व्यक्ति और देवताओं के बीच सीधे सम्बंध हैं। ऋग्वेद में इन सम्बंधों का कोई मध्यस्थ नहीं है। देवता आर्यो के आत्मीय हैं। आकाश देव पिता हैं, पृथ्वी माता है, अग्नि भ्राता हैं। ऐसे रिश्तों में मध्यस्थ की जगह नहीं है।
ऋग्वेद में मनुष्य और देवों की प्रीति अनूठी है। वैदिक अभिजन सभी अवसरों पर देवों का स्मरण करते हैं। वे दुखी होते हैं तो देवों की स्तुतियां करते हैं और जब सुखी होते हैं तब भी लेकिन आनंद और उत्सव के समय वे देवों को ज्यादा याद करते हैं। बहुत समय बाद सामाजिक विकास के किसी चरण में सुख और आनंद के अवसर पर देवों का स्मरण संभवतः बंद हो गया। एक कवि ने लिखा “दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।' ऋग्वेद में इसका उल्टा है। ऋग्वेद के ऋषि आनंदित चित्तदशा में देवों का स्मरण अवश्य करते थे। वे यज्ञ में देव आवाहन करते थे। विवाह जैसे मंगल कार्यो में देव आवाहन अनिवार्य था। एक सुंदर मंत्र में अग्नि से स्तुति है कि “उसके द्वारा आयोजित यज्ञ में 33 देवता आएं और पत्नियों को भी साथ लाएं।” (3.6.9) जान पड़ता है कि वैदिक समाज के लोग उत्सवों में पत्नियों के साथ जाते थे। ऋषि कवि इसी सामाजिक परंपरा में देवों को भी पत्नियों सहित आमंत्रित करते हैं। यहां सामाजिक यथार्थवाद ही सुस्पष्ट है।


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