नीदरलैंड में विधान सभा अध्यक्ष की पुस्तक ‘द वे इंडिया थिंक्स’ का हुआ लोकार्पण

सोचने की भारतीय दृष्टि में देश की सीमा का बंधन नहीं : हृदय नारायण
लखनऊ।


नीदरलैंड की राजधानी एमस्टरडम/हेग के गांधी सेंटर एडोटोरियम में उ.प्र. विधान सभा के अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित द्वारा हिन्दी में लिखित पुस्तक के इंग्लिश संस्करण (द वे इंडिया थिंक्स) का मंगलवार को लोकार्पण किया गया। यह पुस्तक मूल रूप से हिन्दी में सोचने की भारतीय दृष्टि नाम से भी लिखी गयी है।
इस अवसर पर अध्यक्ष श्री दीक्षित ने कहा कि सोचने की भारतीय दृष्टि में देश की सीमा का बंधन नहीं है। सनातन और अद्युनातन का द्वंद्व भी नहीं रहा। भारतीय सोच परंपरा में अंतरिक्ष तक को समेटा गया है। यहां निरपेक्ष सत्य को सोच का केन्द्र बनाया गया है। सोचने की भारतीय दृष्टि में विश्व एक इकाई है। वहां क्षेत्रियता अथवा सामायिकता या देशगत, कालगत सीमा के बंधन नहीं है। सारी सोच लोक मंगल अभीप्सु है।
श्री दीक्षित ने ऋग्वेद, उपनिषद एवं अन्य वैदिक ग्रन्थों का उद्रण देते हुये कहा कि भारतीय चिंतन की समग्र दृष्टि है। इस पुस्तक के माध्यम से भारतीय सोच के बारे में देश और दुनिया को बताने का एक सार्थक प्रयास किया गया है। उन्होंने इस अवसर पर प्रसन्न्ता व्यक्त की कि पुस्तक का उद्घाटन पश्चिमी जगत के नीदरलैंड जैसे उन्नत देश में हो रहा है। वहां पर एकत्रित भीड़ को सम्बोधित करते हुये उन्होंने कहा कि ''मुझे कल्पना भी नहीं थीं कि पुस्तक के विमोचन के समय इतने लोग इक्टठे होकर भारतीय संस्कृति सभ्यता व ऋग्वैदिक कालीन विषयों को जानने व समझने के लिए इतनी रूचि का प्रदर्शन करेंगे है।'' श्री दीक्षित ने आयोजकों एवं उपस्थित समूह के प्रति कृतज्ञता एवं आभार ज्ञापित किया।
इस अवसर पर नीदरलैंड में भारतीय राजदूत, बीनू राजा मुनि ने कहा कि श्री दीक्षित एक महान राजनीतिज्ञ एवं लेखक है। उन्होंने प्रतिनिधि मण्डल के साथ डच संसद में राजनेताओं से मिलकर भारतीय संसद उ0प्र0 विधान सभा की कार्यप्रणाली के साथ-साथ भारतीय ज्ञान-विज्ञान, सोच-विचार, भारतीय संस्कृति व दर्शन पद्वति के बारे में विचार-विमर्श किया। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक के प्रकाशित होने से दुनिया के बड़े हिस्से को भारतीय विचारों के बारे में जानने में सुविधा होगी।
उ.प्र. विधान सभा के प्रमुख सचिव, प्रदीप कुमार दुबे ने कहा कि वह इस पुस्तक के हिंदी संस्करण से बहुत प्रभावित थे। इनकी हमेशा इच्छा रही है कि पुस्तक हिंदी पाठकों तक सीमित न रहे अंग्रजी भाषा के जानने वाले पाठकों तक पहुंचे।


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