वीर सावरकर को भारत रत्न क्योें नहीं ?

बृजनन्दन राजू
भारत रत्न भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए प्रदान किया जाता है। इस सम्मान की शुरूआत 02 जनवरी 1954 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद द्वारा की गई थी। अब तक 48 लोगों को यह सम्मान प्रदान किया जा चुका है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री रहते हुए स्वयं भारत रत्न अपने नाम कर लिया। यही नहीं गांधी परिवार के जितने भी प्रधानमंत्री बने वह चाहे इंदिरा गांधी हों या फिर राजीव गांधी सबको भारत रत्न दिया गया। एक भाजपा नेता ने वीर विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न दिये जाने की मांग क्या कर दी कांग्रेस पार्टी खिलाफत पर उतर आयी। इस देश में सेवा के नाम पर धर्मान्तरण कराने वाली मदर टेरेसा को भारत रत्न दिया जा सकता है लेकिन सावरकर को नहीं।
वह सावरकर जिन्होंने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन लगाया। जिनके अन्दर शुद्ध राष्ट्रभाव से कट्टरता रखने की सामाथ्र्य थी। प्रथम राजनीतिक बंदी जिन्हें दो जन्मों का कारावास मिला। जेल में घोर यातनाएं सहीं। बाहर रहे तो अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष की लौ जलाई। हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष किया। हिन्दुओं के अन्दर व्याप्त अस्पृष्यता छुआछूत को दूर करने का प्रयास किया। घर वापसी का अभियान चलाया। हिन्दुत्व के वह आग्रही थे। ऐसे साहस शौर्य पराक्रम और राष्ट्रभक्ति के पर्याय रहे वीर सावरकर को कांग्रेस से एलर्जी है।
वीर सावरकर का अपमान भारत के महान क्रान्तिकारियों का अपमान होगा। सावरकर को भारत रत्न सम्मान देने न देने से सावरकर की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन कांग्रेस पार्टी ने तो अपनी मानसिकता प्रदर्शित कर ही दी। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि विरोध की राजनीति करते-करते कांग्रेस को उचित अनुचित का भान ही नहीं रह गया है। कभी वह सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगती है कभी सेना की कार्रवाई पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है। जिन वीर सावरकर की इंदिरा गांधी प्रशंसक थी और उन पर उनके ही प्रधानमंत्री रहते 1970 में डाक टिकट जारी किया था उस वीर क्रान्तिकारी पर सवाल खड़ा करना कांग्रेस की कुत्सित मानसिकता दर्शाती है।
सावरकर के समय परिस्थितियां भिन्न थी सावरकर ने जो निर्णय लिया होगा उस कठिन परिस्थिति में वह उन्हें योग्य लगा होगा। बड़ी मात्रा में हिन्दुत्व को समाप्त करने के षड़यन्त्र हो रहे थे। हर दंगे में हिन्दू पिटते थे कोई सुनने वाला नहीं था। उस समय सावरकर ने हिन्दू समाज को नेतृत्व प्रदान करने की कोशिश की। इसलिए उन्हें गलत ठहराना ठीक नहीं है।
वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मांग को लेकर उठी राजनीतिक बहस के बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने सोमवार को सावरकर की तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई और देश के लिए जेल गए। कांग्रेस नेता ने यह भी कहा कि वह निजी तौर पर सावरकर की विचारधारा से सहमत नहीं हैं।
सिंघवी ने ट्वीट कर कहा कि मैं व्यक्तिगत तौर पर सावरकर की विचारधारा से सहमत नहीं हूं लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि वह निपुण व्यक्ति थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भूमिका निभाई, दलित अधिकारों की लड़ाई लड़ी और देश के लिए जेल गए। यह कभी नहीं भूलना चाहिए। जबकि इससे पूर्व कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा था कि सावरकर को ही भारत रत्न क्यों? नाथूरा गोडसे को क्यों नहीं ? कांग्रेस ने कई स्थानों पर वीर सावरकर गद्दार के पोस्टर भी लगाये थे।
इसके अलावा कांग्रेस द्वारा वीर सावरकर को आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) से जोड़ना भी नासमझी है। क्योंकि महासभा एवं संघ में प्रकृति स्वभाव और कार्यपद्धति में अंतर था। डा. हेडगेवार की वीर सावरकर से मित्रता थी। डा. हेडगेवार सावरकर को आदर की दृष्टि से देखते तो थे परन्तु उन्होंने अपने संगठन को हिन्दू महासभा का अधीनस्थ कभी भी नहीं बनने दिया।
दत्तोपंथ ठेंगड़ी ने इस संबंध में कहा है कि जब संघ का कार्य शुरू हुआ तब डा. हेडगेवार ने हिन्दुत्ववादी नेताओं की मदद ली थी। इसका उद्देश्य संघ को नए-नए स्थानों पर स्थापित करना था। कई स्थानो पर हिन्दू महासभा के नेताओं को संघचालक भी नियुक्त किया गया था। लेकिन नीतियां एवं कार्यक्रमों के निर्धारण में संघ महासभा पर कभी निर्भर नहीं रहा और न हीं इस प्रक्रिया में महासभा के नेताओं को सम्मिलित किया।
सावरकर एवं हेडगेवार दोनों महापुरूषों का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंध विश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडम्बरों को नहीं छोडेंगे तब तक हिन्दू-जातीवाद, छूत-अछूत, शहरी-बनवासी और क्षेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा और जब तक वह संगठित नहीं होगा, तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नहीं ले सकेगा। डॉ. हेडगेवार  वीर सावरकर की पुस्तक हिन्दुत्व के विचारों से बहुत प्रभावित थे। जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बंद (नजरबंद) थे, तब डॉ. हेडगेवार वहां उनसे मिलने गये।  
हिन्दू महासभा की गतिविधियों से डा. हेडगेवार 1923 में हुई स्थापना के बाद से जुड़ गये थे। उन्हें 14 सदस्यों वाली प्रचार समिति का सदस्य मनोनीत किया गया था। 1926 में डा. हेडगेवार को नागपुर इकाई का सचिव बनाया गया। वह 1927 तक इस पद पर रहे।
हिन्दू महासभा के नेताओं में डा. मुंजे से डा. हेडगेवार की सबसे अधिक घनिष्ठता थी। उन्हें क्रान्तिकारी आन्दोलन में डा. मुंजे का सक्रिय सहयोग मिला था। जहां डा.मुंजे का डा. हेडगेवार पर जीवनपर्यन्त स्नेह बना रहा, वहीं डा. हेडगेवार के मन में उनके प्रति सम्मान एवं आदर का भाव था। डा. मुंजे ने डा. हेडगेवार को बगैर उनसे पूछे केन्द्रीय हिन्दू सैनिक शिक्षा परिषद के शासकीय निकाय में अपनी जेब से उनके हिस्से का 100 रूपये राशि देकर शामिल कर लिया।
1932 में हिन्दू महासभा ने प्रस्ताव पास कर संघ के अखिल भारतीय स्वरूप को स्वीकार किया था। प्रस्ताव में डा. हेडगेवार की प्रशंसा की गई थी। हिन्दू महासभा ने भी उस समय अपने कार्यकर्ताओ को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। परिणाम स्वरूप कई स्थानों पर हिन्दू महासभा के प्रयास के कारण संघ की शाखा शुरू भी हुई। वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया।
हिन्दू महासभा अपने को हिन्दू राजनीति का ध्रुव मानती थी और संघ से उसकी अपेक्षा थी कि वह इसकी स्वयंसेवी संस्था बनकर जन बल की सहायता करे। महासभा अपनी बैठकों,सम्मेलनों,कार्यक्रमों एवं प्रचार प्रसार के कामों में स्वयंसेवकों का उपयोग करना चाहती थी। डा. हेडगेवार को यह पसंद नहीं था। उन्होंने कहा था संघ के स्वयंसेवकों का काम टेबल कुर्सियां उठाने का नहीं है।
सन् 1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी (नजरबंदी) जब समाप्त हो गयी और उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये गये। इसके बाद 1938 में हिन्दू महासभा का अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको ने उठाया । नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जी चल रहे थे।
भारतीय स्वतंत्रता की प्रकृति, उद्देश्य रचना और कार्यक्रमों के प्रश्नों पर दोनों के बीच मतभेद के बावजूद व्यक्तिगत संबंध थे। डा. हेडगेवार महासभा के माध्यम से संघ का व्याप्त बढ़ाना चाह रहे थे तो महासभा डा. हेडगेवार के संगठन कौशल एवं उनकी प्रसिद्धि और विश्वनीयता का लाभ लेना चाह रही थी।
स्वतंत्रता आन्दोलन में डा. हेडगेवार महासभा को कांग्रेस का विकल्प नहीं समझते थे। लेकिन महासभा द्वारा हिन्दू हितों के लिए विभिन्न स्तरों पर जो कार्य हो रहा था हिन्दुत्व के लिए वह उसकी उपयोगिता को समझते थे। लेकिन जैसे-जैसे महासभा हिन्दू एकता के प्रश्न से अधिक  महत्व राजनीतिक प्रश्नों को देने लगी और राजनीति में मुस्लिम लीग की तर्ज पर अपने आप को हिन्दुओं का प्रतिनिधि घोषित करने लगे वैसे-वैसे डा. हेडगेवार की इससे दूरी बढ़ने लगी।
अक्टूबर 1938 में हिन्दू महासभा एवं आर्य समाज ने हैदराबाद के निजाम की हिन्दू विरोधी नीतियों के विरूद्ध सत्याग्रह संग्राम शुरू किया था। स्वयं वीर सावरकर इसका नेतृत्व कर रहे थे। महासभा की अपेक्षा थी कि जिस प्रकार जंगल सत्याग्रह में संघ के स्वयंसेवकों ने भाग लिया था उसी प्रकार भागानगर सत्याग्रह में भी शामिल हों।  लेकिन डा. हेडगेवार स्वतंत्रता की लड़ाई के अंतिम चरण में इस सत्याग्रह को उपयुक्त नहीं मानते थे। डा. हेडगेवार ने कहा था कि स्वयंसेवक व्यक्तिशः इस आन्दोलन में भाग ले सकते हैं। भैयाजी दाणी जो सरकार्यवाह भी रहे के नेतृत्व में संघ के 100 स्वयंसेवकों का दल सत्याग्रह में शामिल भी हुआ था। इस सत्याग्रह में संघ का यथोचित सहयोग न मिलने पर महासभा के नेताओं में संघ के प्रति आक्रोश चरम पर पहुंच गया। भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा अपनी पुस्तक आधुनिक भारत के निर्माता डा. केशव बलिराम हेगडगेवार में लिखते हैं कि ''डा. हेडगेवार की सार्वजनिक तौर पर आलोचना की गयी। मुंबई से प्रकाशित महासभा समर्थित पत्र वंदे मातरम के संपादक जी.जी. अधिकारी ने 12 लेखों की श्रंखला लिखकर डा. हेडगेवार को हठी,अभिमानी और महत्वाकांक्षी तक कहा। उन पर हिन्दुत्व के आन्दोलन में सहयोग न करने और हिन्दू शाक्ति को बांटने का आरोप लगाया।''  संघ के स्वयंसेवकों ने इस प्रकार के आरोपों को अनदेखा कर अपने कार्य में लगे रहे। नागपुर से प्रकाशित सावधान ने 27 मई के अंक में भागानगर सत्याग्रह में संघ द्वारा भाग न लेने की आलोचना करने वालों को जवाब दिया। इसने लिखा नित्य कार्य और नैमित्तिक कार्य  इनका ज्ञान यदि जी.जी.अधिकारी को होता तो संघ के विरूद्ध जहरीले फूत्कार उन्होंने छोड़े नहीं होते। बाबाराव सावरकर ने एक लेख लिखकर हिन्दू महासभा को जवाब दिया। उन्होंने लिखा संघ के स्वयंसेवक अपना कर्तव्य दूसरों की अपेक्षा अधिक योग्य रीति से समझते हैं एवं उसका निर्वाह करते हैं। बाद में वह संपादक महोदय भी डा. हेडगेवार के समर्थक बन गये।
महासभा के बारे में पहली बार 1938 में डा. हेडगेवार ने वर्धा की एक शाखा में महासभा के नेताओं को आमंत्रित करके कहा '' संघ ने हिन्दुओं को संगठित करने का कार्य हाथ में लिया है जबकि हिन्दू महासभा राजनीतिक संगठन है। संघ हिन्दुओं में देशभक्ति की भावना जगाकर उन्हें संगठित करने का काम कर रहा है। इसलिए स्वयंसेवकों के लिए महासभा के कार्यक्रमों में भाग लेना संभव नहीं है। अगर महासभा उन्हें प्रेरित करती है तो संघ उन्हें नहीं रोकेगा लेकिन महासभा में भाग लेने के लिए निर्देश भी नहीं देगा।


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