हिंदू धर्म के सोलह संस्कार



शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हमारे लिए आवश्यक माना गया है। हिंदू धर्म के अनुसार जीवन में हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से सोलह संस्कारों का पालन करना चाहिए। यह संस्कार व्यक्ति के जन्म से आरंभ होते हैं और मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं। इन संस्कारों की व्याख्या प्राचीन काल से अलग-अलग काल में कई महर्षियों ने की थी, पर वर्तमान समय में जो हम 16 संस्कारों की बात करते हैं तो महाभारत काल में महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रतिपादित हैं। ये संस्कार हैं…





गर्भाधान संस्कार


यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त करने के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद इसे पहले संस्कार के रूप में मान्यता दी गई है। इस संस्कार का लक्ष्य सभी गुणों से युक्त एक उत्तम संतान की प्राप्ति करना है।


सीमंतोन्नयन संस्कार


यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण हमें महाभारत में देखने को मिलता है जब सुभद्रा अपने गर्भ के अंतिम चरण में होती है और अर्जुन उसे चक्रव्यूह तोड़ने का उपाय सिखा रहे होते हैं तो उसके गर्भ में अभिमन्यु इस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। किंतु जब अर्जुन चक्रव्यूह से निकलने का उपाय बताते हैं तो सुभद्रा सो जाती है, इसलिए अभिमन्यु का ज्ञान अधूरा रह जाता है।


पुंसवन संस्कार


गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये हैं कि इससे स्वस्थ, सुंदर, गुणवान संतान की प्राप्ति होती है। आज भी यह देखा जाता है कि स्त्री के गर्भ ठहर जाने के पश्चात उसे कई अच्छी चीजें करने, खाने या देखने को कहा जाता है, वहीं मन को अशुद्ध करने वाली चीजों से उसे दूर रखा जाता है।


वेदारंभ संस्कार


इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है। हिंदू धर्म में वेदों को मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। यहां एक बात और ध्यान देने वाली है कि हमारे धर्म में सभी जाति और वर्ण के लोगों को वेद पढ़ने की स्वतंत्रता है। हालांकि अतीत में इसका बहुत अपभ्रंश हुआ और शूद्रों को वेदों के ज्ञान से वंचित करने का प्रयत्न किया गया। समय के साथ इसमें सुधार हुआ और वेदों का ज्ञान सबके लिए सुलभ हो गया।


केशांत संस्कार


केशांत संस्कार का अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है कि गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे। पुराने जमाने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।


समावर्तन संस्कार


समावर्तन संस्कार का अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना। इस संस्कार के बाद ही मनुष्य गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का अधिकारी बनता है।


जातकर्म संस्कार


बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है, साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो। इस संस्कार में पिता द्वारा संतान को 2 बूंद घी एवं 6 बूंद शहद के मिश्रण को चटाने का प्रावधान है।


नामकरण संस्कार


शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। संतान का नाम अगर उसकी राशि के अनुसार रखा जाए तो अत्यंत शुभ होता है। अगर प्रसव घर पर ही हुआ हो तो प्रसव वाले कमरे में नामकरण संस्कार नहीं करना चाहिए। अगर घर छोटा हो और एक ही कमरा हो तो उसे धोकर शुद्ध करने के बाद उसमें इस संस्कार को किया जा सकता है।


निष्क्रमण संस्कार


निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे। इस संस्कार में बच्चे को सूर्य और चंद्र के दर्शन करने का प्रावधान है।


अन्नप्राशन संस्कार


यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। अन्न और मनुष्य का गहरा संबंध है। मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही उसका मन और आचरण भी बनता है। इस संस्कार में पूजन के उपरांत पंचबलि देने के बाद बच्चे को अन्न (सामान्यतः खीर) खिलाया जाता है।


मुंडन संस्कार


जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवें या सातवें वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।


विद्यारंभ संस्कार


इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है। जब संतान विद्या प्राप्त करने के योग्य हो जाए, तब उसे एक योग्य गुरु के द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। आजकल गुरु-शिष्य परंपरा तो रही नहीं, इसलिए उचित समय पर संतान को योग्य शिक्षा देनी चाहिए। ये इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि धन मनुष्य का साथ छोड़ सकता है, किंतु विद्या कभी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती।


कर्णवेध संस्कार


इस संस्कार में कान छेदे जाते हैं। इसके दो कारण हैं- एक तो विशेषकर कन्या को आभूषण पहनने के लिए और दूसरा, कान छेदने से वहां दबाव पड़ता है जिसे आजकल एक्यूपंक्चर कहते हैं। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।


उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार


उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।


विवाह संस्कार


पुत्र और पुत्री जब मानसिक और शारीरिक रूप से परिपक्व हो जाते हैं तब उनका विवाह कराया जाता है ताकि वे वंशवृद्धि में अपना योगदान दे सकें। पुत्र के लिए उत्तम कन्या और कन्या के लिए उत्तम वर का चयन करने के भी नियम शास्त्रों में बताए गए हैं। इसके अतिरिक्त विद्वान ब्राह्मण से गोत्र, नाड़ी इत्यादि का मिलान करने के बाद ही दोनों का विवाह करना चाहिए। और हां, कभी भी 36 गुण मिलने की आशा न करें क्योंकि भगवान शिव और माता पार्वती के अतिरिक्त आज तक किसी भी दंपत्ति के सभी 36 गुण नहीं मिल सके हैं।


अंत्येष्टि (श्राद्धकर्म) संस्कार


हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के बाद उसके शरीर को विधिपूर्वक जलाने की प्रक्रिया को अंत्येष्टि कहते हैं। हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पूर्व अपने माता-पिता का आशीर्वाद लेने का प्रावधान है। मनुष्य की मृत्यु के पश्चात हम अपने पितरों से आशीर्वाद लेते हैं और उनसे यह प्रार्थना करते हैं कि उस मनुष्य को मुक्ति प्राप्त हो। इसे श्राद्ध कहते हैं। यह संस्कार मनुष्य को पूर्ण करता है और फिर उसे किसी और संस्कार की आवश्यकता नहीं होती।



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