महाभारत के पात्र किसी अजूबे से कम नहीं हैं
वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। महाभारत की कथा के अनुसार महर्षि भारद्वाज एक बार नदी में स्नान करने गए। स्नान की समाप्ति के बाद उन्होंने देखा कि अप्सरा घृताची नग्न होकर स्नान कर रही है। यह देखकर वह कामातुर हो पड़े और उनके शिश्न से बीर्ज टपक पड़ा। उन्होंने ये बीर्ज एक द्रोण कलश में रखा, जिससे एक पुत्र जन्मा। दूसरे मत से कामातुर भारद्वाज ने घृताची से शारीरिक मिलान किया जिनकी योनिमुख द्रोण कलश के मुख के समान थी। द्रोण (दोने) से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम द्रोणाचार्य पड़ा। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुए वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गए। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त संपत्ति को ब्राह्मणों में दान करके महेंद्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुंचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, 'वत्स! तुम विलंब से आए हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।' द्रोण यही तो चाहते थे, अतः उन्होंने कहा, 'हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किंतु आपको मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।' इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गए। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। यह महाभारत का वह महत्त्वपूर्ण पात्र बना जिसका नाम अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा। उन्होंने अपने सहपाठी द्रुपद से सहायता मांगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएं में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य ने अपनी धनुर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों में प्रकांड पंडित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों की उच्च शिक्षा के लिए नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुए।
कृपाचार्य
कृपाचार्य महर्षि गौतम शरद्वान के पुत्र थे। शरद्वान की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने जानपदी नामक एक देवकन्या भेजी थी जिसके गर्भ से दो यमज भाई-बहन हुए। पिता-माता दोनों ने इन्हें जंगल में छोड़ दिया जहां महाराज शांतनु ने इनको देखा। इन पर कृपा करके दोनों को पाला-पोसा जिससे इनके नाम कृप तथा कृपी पड़ गए। इनकी बहन कृपी का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ और उनके पुत्र अश्वत्थामा हुए। अपने पिता के ही सदृश कृपाचार्य भी परम धनुर्धर हुए।