नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है
नानक नदी के किनारे अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतारे और बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं? रात ठंडी है, अंधेरी है! दूर नदी में वे चले गए। मरदाना पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए। वह भागा गांव गया, आधी रात लोगों को जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई। नानक को सभी प्यार करते थे। उनकी मौजूदगी में सभी को सुगंध प्रतीत होती थी। फूल अभी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है! सारा गांव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो जपुजी उनका पहला वचन है। आचार्य रजनीश कहते हैं कि जपुजी उनकी पहली भेंट है परमात्मा से लौट कर। इस घटना के प्रतीकों को समझ लें कि जब तक तुम न खो जाओ, तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा। तुम्हारा खोना ही उसका होना है। तुम ही अड़चन हो, दीवार हो। तुमको भी खो जाना पड़ेगा; डूबना पड़ेगा। परमात्मा के सामने प्रकट होना, प्यारे को पा लेना, इन्हें बिलकुल प्रतीक को, भाषागत रूप से सच मत समझ लेना। जब तुम मिटते हो तो जो भी आंख के सामने होता है वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; समस्त भारतीय वांग्मय चीख-चीख कर कहता है कि वह निराकार है। तुम उसके सामने तब जहां तुम देखोगे, वहीं वह है। जो तुम देखोगे, वही वह है। जिस दिन आंख खुलेगी, सभी वह है। बस तुम मिट जाओ, आंख खुल जाए। अहंकार इंसान की आंख में पड़ा कंकर है उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। परमात्मा प्रकट ही था, तुम मौजूद न थे। नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया। नानक लौटे उस निरंकार का संदेश लेकर फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक शब्द को हम कोई भी कीमत दें छोटी पड़ेगी। एक-एक शब्द वेद-वचन हैं।
नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है। और सब नाम तो आदमी के दिए हैं। राम कहो, कृष्ण कहो, अल्लाह कहो, ये नाम आदमी के दिए हैं। ये हमने बनाए हैं। सांकेतिक हैं लेकिन एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया है वह ओंकार है। क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं और चित्त शून्य हो जाता है तब भी ओंकार की धुन सुनाई पड़ती रहती है। वह हमारी की हुई धुन नहीं है। वह अस्तित्व की धुन है। अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। नानक कहते हैं, सतिनाम। यह सत शब्द भी समझ लेने जैसा है। संस्कृत में दो शब्द हैं। एक सत और एक सत्य। सत का अर्थ होता है अस्तित्व और सत्य का सच्चाई। जब नानक कहते हैं, एक ओंकार सतिनाम; तो इस सत में दोनों हैं- सत्य और सत। उस परम अस्तित्व का नाम जो गणित की तरह सच है और जो काव्य की तरह भी सत है। कर्ता पुरख अर्था वह बनाने वाला है। लेकिन, जो उसने बनाया है वह उससे अलग नहीं है। बनाने वाला, बनायी हुई सृष्टि में छिपा है। कर्ता कृत्य में छिपा है। स्रष्टा सृष्टि में लीन है। इसलिए नानक ने गृहस्थ को और संन्यासी को अलग नहीं किया। क्योंकि अगर कर्ता परमेश्वर अलग है सृष्टि से, तो फिर मानव को सृष्टि के काम-धंधे से अलग हो जाना चाहिए। जब कर्ता पुरख को खोजना है तो कृत्य से दूर हो जाना चाहिए। नानक आखिर तक अलग नहीं हुए। यात्राओं पर जाते थे; और जब भी वापस लौटते तो फिर अपनी खेतीबाड़ी में लग जाते। जिस गांव में वे आखिर में बस गए थे, उसका नाम उन्होंने करतारपुर रख लिया था अर्थात कर्ता का गांव। फिर परमात्मा और उसकी सृष्टि में ऐसा है जैसे नृत्य व नर्तक का। एक आदमी नाच रहा है, तो नृत्य है, लेकिन क्या कोई नृत्य को और नृत्यकार को अलग कर सकेगा? दोनों संयुक्त हैं। इसलिए हमने प्राचीन समय से, परमात्मा को नर्तक की दृष्टि से देखा नटराज! क्योंकि नटराज के प्रतीक में नर्तक और नृत्य अलग नहीं होते। नानक का भी संदेश है कि रहना घर में परंतु ऐसे रहना जैसे हिमालय पर हो। करना दूकान, लेकिन याद परमात्मा की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना।
नानक कहते हैं कर्ता पुरुष, भय से रहित है। भय तो वहीं होता है जहां दूसरा हो, दूसरा कोई नहीं है तुम जिसके अंश हो सामने वाला भी उसी का ही अंश है। सभी एक हैं तो भय किससे। नानक कहते हैं अकाल मूरति, अजूनी (अयोनि), सैभंग (स्वयंभू), वह किसी योनि से पैदा नहीं होता। इंसान को भी अपने भीतर उसी को खोजना है, जो अयोनिज है। यह शरीर तो पैदा हुआ है, मरेगा। इस शरीर के भीतर कालातीत प्रवेश किया है। अकाल पुरुष इस शरीर के भीतर भी मौजूद है। यह शरीर जैसे उसका सिर्फ वस्त्र मात्र है। गुरप्रसादि, अर्थात् वह गुरु कृपा से प्राप्त होता है।
आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु।। अर्थात् वह आदि में सत्य है, युगों के आरंभ में सत्य है, अभी सत्य है। नानक कहते हैं, वह सदा सत्य है। भविष्य में भी सत्य है। वाल्मीकि रामायण में महाराजा बलि वामन अवतार के संबंध में कहते हैं:-
प्रादुर्भावं विकुरुते येनैतन्निधन नचेत्
पुनरेवात्मनात्मानमधिष्ठाय सनिष्ठति।।
अर्थात् परमात्मा तत्कालीन विकृतियों के समाधान के लिये किसी सर्वगुण संपन्न ऐसे व्यक्तित्व का सृजन कर देते हैं जो अपने पुरुषार्थ द्वारा समाज की विकृतियों का समाधान कर अपने नेतृत्व में लोगों को इच्छित दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देता है। महापुरुष अपनी श्रेष्ठता प्रकट करने के उद्देश्य से आचरण नहीं करते। उनका उद्देश्य यह होता है कि मनुष्य अपने जीवन में श्रेष्ठता को जागृत करने का मर्म एवं ढंग उनको देखकर सीख सके। इसलिए वे अपने आपको सामान्य मनुष्य की मर्यादा में रखकर ही कार्य करते हैं। श्री गुरु ननाक देव जी के जीवन पर यह बात बिल्कुल स्टीक बैठती है। उन्होंने सदैव विनम्रता का आचरण किया और दुनिया को सच्चे धर्म का मार्ग दिखलाते हुए अपने कर्मों व जीवंत जीवन संदेशों से मनुष्य को सद्मार्ग दिखलाया। गुरु जी की जयंती पर आओ हम उनके संदेशों व जीवन के मर्म को समझते हुए मानव जीवन का निर्वहन करें और इहलोक से परलोक तक को सुधारने का मार्ग प्रशस्त करें।