स्वयं से दूर की यात्रा है राजनीति

हृदयनारायण दीक्षित
बहुत दूर आ गया हूँ। स्वयं से दूर। स्नेह और प्र्रीति आश्रय से दूर। सो मन में काफी समय से स्वयं की ओर लौटने की हूक है। लेकिन लाचार हूँ। शरीर विश्राम मांगता है और मन मांगता है- मंच, माला, माइक, और जयघोष। महत्वकांक्षाओं ने काफी समय पहले से ही निद्रा भी छीन ली है। स्वयं में होना स्वस्थ होना है। स्व-स्थ का तात्पर्य यही है। लेकिन मन महत्वकांक्षाओं ने 'स्व' की चिन्ता नहीं करने दी। सुख आनंद का स्रोत स्व है। स्व छूटता गया। हमारी प्रतिष्ठा और प्रशंसा दूसरों का अनुदान बनती रही। वे जिन्दाबाद बोलें तो हम प्रसन्न। वे मुर्दाबाद बोले तो हम सन्न। हमारे आनंद पर हमारा अधिकार नहीं। हमारे सुख आनंद का रिमोट दूसरों के पास है। वे प्रशंसा करते हैं। हम उल्लास में होते हैं, वे तटस्थ होते हैं। हम अवसाद में होते हैं।
राजनीति स्वयं से दूर की यात्रा है। यहां स्वयं के प्रगति आस्तिक भाव नहीं है। हम स्वयं अपनी प्रशंसा करते हैं, प्रशंसा सुनने के लिए तमाम उपाय करते हैं। बेशक अपना चित्र देखकर सब प्रसन्न होते हैं। लेकिन हम अपना बड़ा चित्र चाहते हैं। अपना जयघोष सुनने के लिए तमाम प्रयत्न करते हैं। स्वचित्त की पुकार नहीं सुनते। सुनें भी कैसे? हम स्वयं से बहुत दूर निकल आए हैं। राजनीति स्वयं से दूर ले जाती है और अध्यात्म स्वयं के भीतर। अध्यात्म किसी कर्मकाण्ड का मांग नहीं है। शक्ति प्राप्ति के सारे उपाय स्वयं से दूर ले जाते हैं, ये बर्हियात्रा हैं। स्वयं को जानने के प्रयास अन्तर्यात्रा में संभव है। बाहर से भीतर की यात्रा अध्यात्म है।
मनुष्य जटिल संरचना है। वैज्ञानिकांें ने इस संरचना की तमाम पर्ते खोली हैं। विज्ञान की उपलब्धियां प्रशंसनीय है। लेकिन मनुष्य के भाव जगत का अध्ययन अभी भी शेष है। सनसनाती वायु का वैज्ञानिक विवेचन संभव है। इस वायु स्पर्श से होने वाले आनंद का विवेचन अभी शेष है। तमाम प्रश्न और भी हैं। हम प्रकृति के रूप देखकर प्रसन्न या सन्न होते हैं। यह सरल बात है लेकिन कभी-कभी हम यों ही अकारण भी प्रसन्न या सन्न होते हैं। ऐसे कारण समझ नहीं आते। शतपथ ब्राह्मण में प्रश्न है-'मनुष्य को कौन जानता है?' इस प्रश्न में भी निष्कर्ष है कि मनुष्य को कोई नहीं जानता। जानेगा भी कैसे? प्रत्येक मनुष्य अद्वितीय है। अनूठा है। उस जैसा दूसरा मनुष्य है ही नहीं। सब भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए सबके आचरण, व्यवहार, प्रसन्न्ता, या अप्रसन्न्ता के कारक भी भिन्न हैं।
मनुष्य का अध्ययन कोई दूसरा मनुष्य नहीं कर सकता। स्वयं का अध्ययन स्वयं के द्वारा ही संभव है। लेकिन हम स्वयं से दूर रहते हैं। मैं स्वयं से बहुत दूर हूँ। स्वयं से भेट नहीं होती। स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार हुआ नहीं। दुनिया की तमाम पोथियां बांच गया हूँ। देश दुनिया का भ्रमण कर चुका हूँ पर इससे क्या लाभ? अभी हम स्वयं से ही परिचित नहीं हैं। उलटवासी आश्चर्यजनक है। स्वयं से परिचय नहीं और सारी दुनिया का ज्ञान जानना चाहते हैं। उपनिषद् में शिष्य ने ज्ञान पर एक सुंदर प्रश्न पूछा था, “श्रीमान ऐसा ज्ञान क्या है? जिससे सब कुछ जाना जा सकता है।'' ऐसे प्रश्न उपनिषद् काल की जिज्ञासा थे। मेरे मन में इसका सीधा उत्तर है- स्वयं के ज्ञान से सब कुछ जाना जा सकता है। स्वयं के ज्ञान के अभाव में दुनिया से प्राप्त ज्ञान का विवेचन असंभव है।
स्वयं का ज्ञान आसान है। इसके लिए तर्कशास्त्र या दर्शनशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। स्वयं की स्वयं से मुलाकात ही पर्याप्त है। स्वयं से स्वयं का हाल चाल। स्वयं की ओर से स्वयं को नमस्कार। स्वयं से स्वयं की उलाहना। स्वयं से स्वयं को चुगली। स्वयं से स्वयं का प्यार। यह बहुप्रचलित आत्मचिंतन नहीं है। यह स्वयं से स्वयं के मध्य महाप्रेम की भूमिका है। प्रेम में दो पक्ष होते हैं लेकिन इस प्रेम में दूसरे की सहमति की आवश्यकता नहीं। कोई झंझट नहीं। यहां दो है ही नहीं। हम स्वयं ही द्विखण्डित जान पड़ते हैं। वैसे हमारे भीतर दो हैं ही नहीं। प्रेम संकरी गली है। कबीर ने गाया है- प्रेम गली अति सांकरी तामे दो न समाय। स्वयं से स्वयं के मध्य अद्वैत है और अद्वैत अनुभूति भारत का श्रेय है। स्वयं के निकट होना अनिवार्य है। लेकिन हम बहुत दूर हैं। यह दूरी काफी लम्बी है और अति निकट भी। ईशावास्योपनिषद् के ऋषि ने 'परम' के सम्बंध में कहा है, ''वह अतिदूर है, अतिनिकट भीतर भी है- तद्दूरे तद्वन्तिके। कहा है कि वह स्थिर है और गतिशील भी है। हमारा स्व हमारे भीतर है, इसलिए अति निकट है। निकट कहना भी उचित नहीं। हम ही स्व है। दूर इसीलिए जान पड़ता है कि हम अपनी महत्वकांक्षाओं के कारण 'स्व' के संपर्क में नहीं आते। दो मित्र सामने बैठे हैं। दोनों अपने मोबाइल पर व्यस्त हैं। दोनों भौगोलिक दृष्टि से निकट हैं। दोनों अपनी-अपनी धुन में हैं। इसलिए निकट होकर भी बहुत दूर हैं। मिलते हैं लेकिन मुलाकात नहीं होती। हम आत्मीय होकर भी अपरिचित जैसे हैं।
महत्वकांक्षाएं जीवन रस का मजा नहीं लेने देती। कभी-कभी स्वयं से अनचाहे ही भेंट हो जाती है। ऐसी भेंट उदासी देती है। स्वयं से स्वयं की गंभीर शिकायत विषाद है। स्वयं से स्वयं की लगातार दूरी अवसाद है लेकिन स्वयं से स्वयं की निष्काम प्रीति प्रसाद है। ऐसा प्रसाद जीवन रस का मधु है। प्रसादपूर्ण मधु आनंददाता है। तब यह मधु हमारे अंतस् की प्रकृति बनता है। स्वयं से स्वयं का मिलन बहुधा टलता रहता है। जीवन के अधिकांश काम तमाम तनाव देते हैं। चैन से बैठना मुश्किल हो जाता है। शरीर और मन थकते हैं। विश्राम के समय कभी-कभी स्वयं का स्मरण होता है। ऐसा बहुधा नहीं होता। सप्रयास भी नहीं होता। अनायास ही स्वयं को स्वयं का स्मरण होता है। सप्रयास हो तो तमाम आाधारभूत प्रश्न भी उठते हैं। जैसे मैं कौन हूँ? क्या मैं इस जन्म के पहले भी सूक्ष्म या स्थूल रूप में था? क्या यही एक जीवन है? क्या मृत्यु के बाद सब कुछ समाप्त हो जाता है? क्या पृथ्वी ग्रह में हमारा होना किसी योजना का परिणाम है? क्या हम नियति के उपकरण मात्र हैं? दुख क्या है? दुख क्यों है? हम क्यों हैं? आदि आदि।
सुंदर प्रश्नों के लिए भी स्वसाक्षात्कार आवश्यक है। इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का विश्वविद्यालय भी हमारे भीतर है। अंतः क्षेत्र में दूसरों के प्रश्न या उत्तर काम नहीं आते। हमारा स्व अनंत का अविभाज्य हिस्सा है। इकाई स्व है, यह अनंत का भाग है। स्वसाक्षात्कार में अनंत सभी प्रश्नों के उत्तर लेकर हमारे सामने खड़ा होता है। तब प्रश्न और उत्तर दोनों ही गिर जाते हैं। जीवन प्रसाद से भर जाता है।
हमारा स्वयं का अनुभव प्रगाढ़ नहीं है। हम स्वयं से बहुत दूर हैं। बहुत दूर। हमने स्वयं से स्वयं की छुट-पुट भेटों के आधार पर ऐसा अनुमान किया है। इस आकलन में शब्द प्रमाण की प्राचीन पंरपरा का अनुसरण किया गया है। स्वयं से स्वयं की प्रीति में शारीरिक स्वास्थ्य है और आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी। यहां सुख स्वस्ति दोनो ही हैं। इसका कोई विकल्प नहीं। इसलिए मैं लौटना चाहता हूँ स्वयं के पास। हमारा स्वयं हमको काफी समय से पुकार रहा है- आओ अपने पास। यहीं तुम्हारा सर्वस्व है। स्वयं से दूर होने के कारण जीवन का संगीत नहीं सुनाई पड़ता। स्वयं में होकर ही जीवनवीणा का अन्तर्संगीत है।


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