लखनऊ की हिंसा के पीछे बंगाल और कश्मीरी कनेक्शन भी दिखाई दिया

अजय कुमार


उत्तर प्रदेश में नागरिकता संशोधन कानून पर दो दिनों की हिंसा के बाद जिंदगी फिर से धीरे−धीरे रफ्तार पकड़ने लगी है, लेकिन अपने पीछे कई सवाल भी छोड़ गई है, जिसका जवाब कुछ दिनों तक सड़क पर तांडव मचाने वाले लोगों और उनके परिवार के सदस्यों को देना होगा तथा उस समाज को भी चिन्हित करना होगा, जिस समाज के दंगाई सड़क पर सरकारी और निजी संपत्तियों में आगजनी के साथ−साथ हाथ में पत्थर लिए मरने−मारने पर उतारू थे। पुलिस को जिस तरह दंगाइयों ने अपना निशाना बनाया। वह सुनियोजित था। लखनऊ की बात की जाए तो यहां हिंसा का बंगाल और कश्मीरी कनेक्शन भी दिखाई दिया। राज्य के बाहर से आए युवा जिनके शरीर से लेकर पैरों तक में ब्रांडेड कपड़े और जूते नजर आ रहे थे, उनकी भी शिनाख्त शुरू हो गई है। तलाश उन लोगों की भी हो रही है जिन्होंने पर्दे के पीछे रहकर दूसरे राज्यों से आए दंगाइयों को ठहराने−खाने की व्यवस्था की। योगी सरकार जिस तरह से दंगाइयों पर शिकंजा कस रही है, उससे तो यही लगता है कि दंगाइयों को गिरफ्तार किया जाएगा, कुछ पर रासुका के तहत कार्रवाई भी की जा रही है। इसके अलावा दंगाइयों की संपत्ति जब्त करके जानमाल का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई की जाएगी। इसको लेकर पुलिस काफी आगे बढ़ भी चुकी है।


हिंसा का सबसे खतरनाक रूप 20 दिसंबर को जुम्मे की नमाज के बाद देखने को मिला। दर्जनों शहर हिंसा की आग में झोंक दिए गए। जुम्मे (शुक्रवार) की नमाज के बाद जिस तरह से पूरे प्रदेश में हिंसा की आग भड़की, उसने यह भी सवाल खड़ा कर दिया है आखिर मस्जिद में नमाज पढ़ने गए नमाजी वहां से क्या 'संदेश' लेकर आते हैं। निश्चित ही कमी धर्म में नहीं, उसकी आड़ लेकर हिंसा फैलाने वालों और उनको बढ़ावा देने वालों की सोच में है, जो नमाज पढ़ने आए भोले−भाले नमाजियों को गलत राह दिखाते हैं। समय की यह मांग है कि धर्म गुरुओं को तमाम किन्तु−परंतुओं से ऊपर उठकर इस बात पर गंभीरता से मंथन करना चाहिए कि उनकी किसी कारगुजारी से धर्म की पवित्रता पर आंच न आए।
बहरहाल, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में चल रहे प्रदर्शनों के दौरान हिंसा करने वालों पर पुलिस का शिकंजा कसने लगा है। 22 दिसंबर को कड़ी चौकसी के बीच प्रदेश में शांति रही। हिंसा की घटनाओं को लेकर अब तक दर्ज कुल 164 मुकदमों में 879 लोग गिरफ्तार हुए हैं। उपद्रवियों की गिरफ्तारी के लिए लगातार दबिश जारी है। अब तक पूरे प्रदेश में 5312 लोगों को शांति भंग की आशंका में पाबंद किया गया। कुछ जिलों में उपद्रवियों ने अवैध असलहों का धड़ल्ले से प्रयोग किया। घटनास्थलों से अब तक 647 कारतूस के खोखे बरामद किए गए हैं। फिरोजाबाद, बिजनौर व मुजफ्फरनगर से 35 अवैध असलहे और 69 जिंदा कारतूस बरामद किए गए हैं। इस बीच कानपुर में घायल तीसरे व्यक्ति की मौत हो गई। अभी तक करीब 18 लोग हिंसा में मारे जा चुके हैं।
अबकी से पुलिस द्वारा सफेदपोश और कथित समाजसेवकों की भी पोल खोली जा रही है। लखनऊ के हजरतगंज के परिवर्तन चौक पर हुए बवाल के मामले में पुलिस ने महिला एक्टिविस्ट सदफ जफर को गिरफ्तार किया है। सदफ की गिरफ्तारी से सोशल मीडिया पर घमासान शुरू हो गया है। सहयोगियों का कहना है कि सदफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रही थीं। प्रदर्शन के दौरान वह फेसबुक लाइव कर रही थीं। लोगों ने एक्टिविस्ट सदफ जफर, दीपक कबीर और मोहम्मद शोएब समेत अन्य की गिरफ्तारी के विरोध में सोशल मीडिया पर मुहिम चलाई जरूर लेकिन इसका योगी की पुलिस पर कोई खास असर होता नहीं दिखा। लखनऊ में फैजाबाद रोड पर सुषमा हॉस्पिटल के सामने कालिंदी विला में रहने वाली सदफ जफर कई प्रतिष्ठित स्कूलों में शिक्षिका रह चुकी हैं। वह कांग्रेस की पूर्व मीडिया प्रवक्ता थीं। वह सीएए के विरोध में 19 दिसम्बर को परिवर्तन चौक पर हुए धरना−प्रदर्शन में शामिल हुई थीं। प्रदर्शन के दौरान ही वहां हिंसा फैल गई थी। बवाल के दौरान पुलिस ने एक्टिविस्ट सदफ जफर समेत 34 लोगों को मौके से गिरफ्तार किया था। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) ने इस पर विरोध प्रकट किया है। जिला अध्यक्ष किरण सिंह का आरोप है कि पुलिस ने मनमाने तरीके से कार्रवाई की है।
खैर, लोकतंत्र में मतभेद जताना या सरकार के किसी फैसले का विरोध करना जनता का मूल अधिकार माना जाता है। इसमें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अलग नजरिया रखने वाले लोगों की संख्या कितनी है। शायद यही लोकतंत्र की विशेषता है कि यह अल्पमत रखने वालों को भी विरोध−प्रदर्शन का पूरा अधिकार देता है। समस्या तब आती है, जब ऐसे विरोध और प्रदर्शन के दौरान हिंसा की वारदात हो जाती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में जनसभा के दौरान पुलिस पर पत्थरबाजी की जिस तरह निंदा की है, उसे सभी दलों के नेताओं को गंभीरता से लेना चाहिए। पुलिस के साथ खड़े होने की बजाए उन पर पत्थर बरसाने वालों के साथ जो नेता खड़े हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि वह भी पुलिस सुरक्षा में अपने आप को सुरक्षित समझते हैं। पुलिस सुरक्षा के बिना यह नेता घर के बाहर तक निकलने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। पुलिस सुरक्षा हासिल करने के लिए तरह−तरह के हथकंडे अपनाते हैं, वह ही उनके (पुलिस वालों) खिलाफ नजर आएंगे तो स्वयं ही अपना स्तर गिराएंगे।
यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में किसी संगठन या दल को विरोध या आंदोलन करने का अधिकार है तो साथ−साथ उसकी यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वह समाज में किसी भी तरह की हिंसा न होने दे। अगर हिंसा होती है तो एक तरह से आंदोलनकारी अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। देश भर में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जो आंदोलन चल रहा हैं, वह हिंसक होता है तो इसके लिए उनके खिलाफ तो कार्रवाई होती ही है जो हिंसा में लिप्त पाए जाते हैं। गर्दन उनकी भी फंसती है जो ऐसे विरोध−प्रदर्शन आहूत करते हैं। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए जहां ऐसे आयोजन करने वालों ने इस बात का ख्याल रखा वहां शांति बनी रही, लेकिन तनाव के माहौल में हिंसा की खबरें ही सुर्खियां बनती हैं और यही अबकी बार देखने को मिला।
लब्बोलुआब यह है कि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि आंदोलन के दौरान हिंसा देखने को मिली हो। ऐसा पहले भी कई आंदोलनों में देखा जा चुका है। हाल−फिलहाल में गोरक्षा के नाम पर भी यही भेड़चाल नजर आई थी। कुछ साल पहले ही भ्रष्टाचार के खिलाफ चले देशव्यापी आंदोलन में भी अहिंसक तेवर हर जगह दिखाई दिया था। इसी तरह, असम आंदोलन का पहला दौर भी पूरी तरह अहिंसक था। यह भी देखा गया है कि जिन आंदोलनों में नेतृत्व शांति बनाए रखने को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध होता है, वहां हिंसा नहीं हो पाती। जहां यह प्रतिबद्धता नहीं होती, वहां भीड़ की मानसिकता हावी हो जाती है। किसी भी आंदोलन की अगुवाई करने वाले की मजबूती भी काफी मायने रखती है। वह पूरी स्थिति पर नियंत्रण रखने में सक्षम होता है। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ समस्या शायद इसलिए भी देखने को मिली कि यह आंदोलन जिस तरह से अचानक शुरू हुआ, उसमें कोई प्रभावी केंद्रीय नेतृत्व नहीं था, इसलिए असामाजिक तत्वों ने इसका पूरा फायदा उठा कर हिंसा को अंजाम दिया। वहीं गैर भाजपा दलों के नेताओं ने अपने बयानों से भी माहौल को खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि वह जानते थे कि उनके ऊपर किसी तरह ही आंच नहीं आएगी।
बात सरकारी रूख की कि जाए तो हिंसा या दंगों के समय सरकार तनावपूर्ण स्थिति का मुकाबला दो तरह से करती रही है। एक तो ऐसे मौकों पर वह इंटरनेट ठप कर देती है दूसरे धारा−144 लागू कर दी जाती है। दूसरा तरीका वहां अपनाना पड़ता है, जहां हालात बेकाबू होने लगते हैं और पुलिस को बल−प्रयोग करना पड़ता है। ये दोनों ही तरीके कई समस्याएं पैदा करते हैं और नागरिक आजादी को भी बाधित करते हैं। आज के समय आम जनता को धारा 144 लागू होने से अधिक परेशानी तब होती है जब इंटरनेट जैसी संचार सेवाएं बंद कर दी जाती हैं। कुछ लोगों का इंटरनेट बंद होने से मनोरंजन और सोशल दिनचर्या कम हो जाती है, जो बहुत ज्यादा नुकसानदायक नहीं रहता है, लेकिन डिजिटल युग में जब सब सेवाएं ऑनलाइन हों तो समस्या बहुत बड़ी हो जाती है। एक नहीं तमाम सेवाएं बाधित हो जाती हैं। मोबाइल से इंटरनेट गया तो वह दो−ढाई दशक पहले का मोबाइल बनकर रह जाता है, जिस पर सिर्फ बातचीत की जाती थी। ऐसे में जरूरी है कि सरकार इंटरनेट बंद करने जैसे कदम उठाने की बजाए इसका दुरूपयोग रोकने के लिए सख्त कानून बनाए। वैसे, भी अब सीसीटीवी, सोशल साइट्स, पुलिस और मीडिया के कैमरों जैसे तमाम साधन उपलब्ध हैं जिसके रहते कोई दंगाई बच जाए, ऐसा संभव नहीं है। इसलिए दंगा करने वालों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी कारगुजारी किसी भी हालत में छिप नहीं सकती है।
 


 


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