स्कंद षष्ठी का व्रत सुयोग्य संतान देता है


स्कंद षष्ठी का व्रत कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है। तिथितत्त्व ने चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी को स्कंद षष्ठी कहा है। यह व्रत संतान षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है। कुछ लोग आषाढ़ माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी मनाते हैं। स्कंदपुराण के नारद-नारायण संवाद में संतान प्राप्ति और संतान की पीड़ाओं का शमन करने वाले इस व्रत का विधान बताया गया है। एक दिन पूर्व से उपवास करके षष्ठी को कुमार अर्थात कार्तिकेय की पूजा करनी चाहिए। तमिल प्रदेश में स्कंद षष्ठी महत्त्वपूर्ण है और इसका संपादन मंदिरों या किन्हीं भवनों से होता है।


प्राचीनता एवं प्रामाणिकता


इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता स्वयं परिलक्षित होती है। इस कारण यह व्रत श्रद्धाभाव से मनाए जाने वाले पर्व का रूप धारण करता है। स्कंद षष्ठी के संबंध में मान्यता है कि राजा शर्याति और भार्गव ऋषि च्यवन का भी ऐतिहासिक कथानक इससे जुड़ा है। कहते हैं कि स्कंद षष्ठी की उपासना से च्यवन ऋषि को आंखों की ज्योति प्राप्त हुई। ब्रह्मवैवर्तपुराण में बताया गया है कि स्कंद षष्ठी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो जाता है। स्कंद षष्ठी पूजा की पौराणिक परंपरा है।


आवश्यक सामग्री


भगवान शालिग्राम जी का विग्रह, कार्तिकेय का चित्र, तुलसी का पौधा (गमले में लगा हुआ), तांबे का लोटा, नारियल, पूजा की सामग्री, जैसे-कुंकुम, अक्षत, हल्दी, चंदन, अबीर, गुलाल, दीपक, घी, इत्र, पुष्प, दूध, जल, मौसमी फल, मेवा, मौली आसन इत्यादि। यह व्रत विधिपूर्वक करने से सुयोग्य संतान की प्राप्ति होती है। संतान को किसी प्रकार का कष्ट या रोग हो तो यह व्रत संतान को इन सबसे बचाता है।


पूजन


स्कंद षष्ठी के अवसर पर शिव-पार्वती को पूजा जाता है। मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। इसमें स्कंद देव (कार्तिकेय) की स्थापना करके पूजा की जाती है तथा अखंड दीपक जलाए जाते हैं। भक्तों द्वारा स्कंद षष्ठी महात्म्य का नित्य पाठ किया जाता है। भगवान को स्नान कराया जाता है, नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और उनकी पूजा की जाती है। इस दिन भगवान को भोग लगाते हैं, विशेष कार्य की सिद्धि के लिए इस समय की गई पूजा-अर्चना विशेष फलदायी होती है। इसमें साधक तंत्र साधना भी करते हैं। इसमें मांस, शराब, प्याज, लहसुन का त्याग करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का संयम रखना आवश्यक होता है।


कथा


भगवान कार्तिकेय की जन्म कथा के विषय में पुराणों से ज्ञात होता है कि जब दैत्यों का अत्याचार और आतंक फैल जाता है और देवताओं को पराजय का सामना करना पड़ता है, तब सभी देवता भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचते हैं और अपनी रक्षार्थ उनसे प्रार्थना करते हैं। ब्रह्मा उनके दुख को जानकर उनसे कहते हैं कि तारक का अंत भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही संभव है, परंतु सती के अंत के पश्चात भगवान शिव गहन साधना में लीन हुए रहते हैं। इंद्र और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शिव उनकी पुकार सुनकर पार्वती से विवाह करते हैं। शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का विवाह हो जाता है। इस प्रकार कार्तिकेय का जन्म होता है और कार्तिकेय तारकासुर का वध करके देवों को उनका स्थान प्रदान करते हैं।


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