मथुरा का दर्शन करने वाला मानव श्रीहरि के दर्शन का फल पाता है


भगवान श्रीकृष्ण को मथुरा और द्वारकापुरी से विशेष प्रेम है। मथुरा में भगवान ने जन्म लिया, लीलाएँ दिखाईं, कंस के कुशासन से मथुरा वासियों को मुक्ति दिलाकर धर्म की स्थापना की तो द्वारकापुरी में उनकी लीला अपरमपार रही। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण का वंदन करने के साथ ही यदि मनुष्य मथुरा नगरी का नाम ले ले तो उसे भगवान के नाम के उच्चारण का फल मिलता है। यदि वह मथुरा का नाम सुन ले तो श्रीकृष्ण के कथा श्रवण का फल पाता है। मथुरा का स्पर्श प्राप्त करके मनुष्य साधु संतों के स्पर्श का फल पाता है। मथुरा में रहकर किसी भी गंध को ग्रहण करने वाला मानव भगवच्चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी के पत्र की सुगंध लेने का फल प्राप्त करता है। मथुरा का दर्शन करने वाला मानव श्रीहरि के दर्शन का फल पाता है। स्वतः किया हुआ आहार भी यहां भगवान लक्ष्मीपति के नैवेद्य−प्रसाद भक्षण का फल देता है। दोनों बांहों से वहां कोई भी कार्य करके श्रीहरि की सेवा करने का फल पाता है और वहां घूमने फिरने वाला भी पग−पग पर तीर्थयात्रा के फल का भागी होता है।
कहा जाता है कि बड़े से बड़ा महापापी भी मथुरा में निवास करने से योगीश्वरों की गति को प्राप्त होता है। कहा जाता है कि उन पैरों को धिक्कार है, जो कभी मधुबन में नहीं गये। उन नेत्रों को धिक्कार है, जो कभी मथुरा का दर्शन नहीं कर सके। मथुरा में चौदह करोड़ वन हैं, जहां तीर्थों का निवास है। इन तीर्थों में से प्रत्येक मोक्षदाय है। यद्यपि संसार में काशी आदि पुरियां भी मोक्षदायिनी हैं, तथापि उन सब में मथुरा ही धन्य है, जो जन्म, मौंजीव्रत, मृत्यु और दाह संस्कारों द्वारा मनुष्यों को चार प्रकार की मुक्ति प्रदान करती है। जो सब पुरियों की ईश्वरी, व्रजेश्वरी, तीर्थेश्वरी, यज्ञ तथा तप की निधीश्वरी, मोक्षदायिनी तथा परम धर्मधुरंधरा है। जो बिना किसी कामना के भगवान में मन लगाकर इस भूतल पर भक्ति भाव से मथुरा माहात्म्य अथवा मथुराखण्ड को सुनता है, वह विपन्नों पर विजय पाकर, स्वर्गलोक में अधिषतियों को लांघकर सीधे गोलोकधाम में चला जाता है।
द्वारकापुरी


मथुरा की ही तरह तीनों लोकों में विख्यात द्वारकापुरी भी धन्य है, जहां साक्षात् परिपूर्णम भगवान श्रीकृष्ण निवास करते हैं। द्वारकापुरी का उदय कैसे हुआ इससे संबंधित पुराणों में एक प्रसंग मिलता है। मनु के पुत्र शर्याति चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्हें ऐसा महसूस होता था कि पूरी पृथ्वी पर उनका ही राज है और यह उन्होंने अपने बल से अर्जित की है। इस बात से जब उनके मझले पुत्र आनर्त ने नाइत्तफाकी जाहिर की और यह कहा कि सभी भूमि श्रीकृष्ण की है तो पिता शर्याति ने कहा कि जहां तक मेरा राज्य है, वहां तक की भूमि पर तुम निवास मत करो। तुमने जिन सर्वसहायक श्रीकृष्ण की आराधना की है, वे भगवान भी क्या तुम्हारे लिये कोई नई पृथ्वी दे देंगे। इस पर आनर्त ने राजा से कहा कि जहां तक पृथ्वी पर आपका राज्य है, वहां तक मेरा निवास नहीं होगा। पिता राजा शर्याति द्वारा निकाले गये आनर्त उनसे विदा लेकर समुद्र के तट पर चले गये और समुद्र की वेला में पहुंचकर दस हजार वर्षों तक तपस्या करते रहे। आनर्त की प्रेमलक्षणा भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीहरि ने उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया और वर मांगने के लिए कहा। आनर्त दोनों हाथ जोड़कर शीघ्रतापूर्वक उठे और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण ने आनर्त की समस्या जानकर बैकुण्ठ से सौ योजन विशाल भूखण्ड उखाड़ मंगाया और समुद्र में सुदर्शन चक्र की नींव बनाकर उसी के ऊपर उस भूखण्ड को स्थापित किया। राजा आनर्त ने एक लाख वर्षों तक पुत्र−पौत्रों से संपन्न हो वहां राज्य किया।


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